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________________ उत्तरज्झयणाणि ३२६ अध्ययन १६ :श्लोक ७८-६१टि० ५४-६१ उपशम-प्रधान होते हैं। इसलिए बार-बार उन्हीं के उदाहरण से है--मृगों की भांति इधर-उधर कूदते हुए भ्रमण करना। यह मृगों विषय को समझाया गया है।' के चलने का प्रकार है। वृत्तिकार ने विकल्प में इसका संस्कृत ५४. महावन में (महारण्णम्मि) रूप 'मितचारिता' देकर इसका अर्थ इस प्रकार किया है-मृग टीकाकार का कथन है कि यहां 'महा' शब्द विशेष स्वभावतः परिमितभोजी होते हैं। उनकी परिमित भक्षण की चर्या प्रयोजन से ही लिया गया है। साधारण अरण्य में लोगों का 'मितचारिता' कहलाती है। आवागमन रहता है। वहां कोई कृपालु व्यक्ति किसी पशु को २. गच्छई मिगचारियं-यहां मृगचारिका का अर्थ हैपीड़ित देख उसकी चिकित्सा कर देता है। जैसे किसी वैद्य ने मृगों की आश्रयभूमी जहां मृग स्वतंत्र रूप से ऊट-बैठ सकते अरण्य में एक व्याघ्र की आंखों की चिकित्सा की थी। महारण्य हैं। तात्पर्य में यह स्वतंत्र विहार की भूमि है। में आवागमन न होने से पशुओं की चिकित्सा का प्रसंग ही नहीं ५८. स्वतंत्र विहार (अणेगओ) आता। जैसे मृग एक वृक्ष से प्रतिबद्ध होकर नहीं रहता, किन्तु ५५. देता है (पणामए) अनेक स्थानों पर विचरता है, वैसे ही मुनि भी अनेकगामी होता अप॑ धातु को प्राकृत में प्रणाम आदेश होता है। इसका है। वह किसी एक स्थान से प्रतिबद्ध नहीं रहता, अनियत अर्थ है-देना। विहार करता रहता है। ५६. लता निकुब्जों (वल्लराणि) ५९. गोचर से ही जीवन-यापन करने वाला (धुवगोयरे) यह देश्य शब्द है। इसके सात अर्थ हैं-अरण्य, महिष, यहां ध्रुव का अर्थ है-सदा और गोचर का अर्थ है—वन क्षेत्र, युवा, समीर, निर्जल-देश और वन। । की वह भूमी जहां पशुओं को चरने के लिए घास और पीने के टीकाकार ने इसके चार अर्थों का निर्देश किया है- लिए पानी उपलब्ध हो जाता है। अरण्य पशु इसी गोचर से अरण्य, निर्जल-देश, वन और क्षेत्र। यहां वल्लर का अर्थ- अपना जीवन-यापन करते हैं। गहन (लता-निकुञ्ज) होना चाहिए। ६०. उपधि (उवहिं) ५७. मृगचर्या (मिगचारियं) उपथि का अर्थ है-उपकरण--आभरणादि। मृगापुत्र को प्रस्तुत अध्ययन में 'मिगचारियं या मियचारियं' शब्द पांच माता-पिता के द्वारा प्रव्रजित होने की अनुमति मिल गई। उस बार आया है--श्लोक ८१, ८२, ८४ और ८५ में। शान्त्याचार्य समय उसने उपधि को त्यागने का संकल्प किया। ने 'मिगचारिया' के संस्कृत रूप दो दिए हैं वृत्तिकार ने उपधि के दो प्रकार बतलाये हैं-द्रव्य और १. मृगचर्या-हिरणों की इधर-उधर उत्प्लवन की चर्या। भाव। द्रव्य उपधि का अर्थ है-उपकरण और भाव उपधि का २. मितचारिता-परिमित भक्षणरूप चर्या । हिरण अर्थ है-छद्म या कपट । प्रव्रजित होने के लिए इन दोनों का स्वभावतः मिताहारी होते हैं। त्याग आवश्यक है। 'चर्या' का प्राकृत रूप 'चरिया' बनता है, इसलिए 'चारिया' ६१. (श्लोक ९१) का संस्कृत रूप 'चारिका' या 'चारिता'-दोनों हो सकते हैं। प्रस्तुत श्लोक के कुछ शब्दों का विमर्श इस प्रकार हैअर्थ-संगति की दृष्टि से 'मितचारिता' की अपेक्षा 'मृगचारिका' १. गारव-गौरव का अर्थ है-अभिमान से उत्तप्त चित्त अधिक उपयुक्त है। की अवस्था। वह तीन प्रकार का हैप्रस्तुत श्लोक (८१) में 'मिगचारियं' शब्द दो बार प्रयुक्त .ऋद्धि गौरव-ऐश्वर्य का अभिमान। है। दोनों के अर्थ भिन्न हैं • रस गौरव-इष्ट वस्तु की प्राप्ति का अभिमान। १. मिगचारियं चरित्ताणं-यहां मृगचारिका का अर्थ •सात गौरव-सुख-सुविधाओं का अभिमान। पिता के द्वारा प्रवाशाने का संकल्प किया। द्रव्य और १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६३ : इह च मृगपक्षिणामुभयेषामुपक्षेपे यन्मृगस्यैव पुनः ६. वही, पत्र ४६२-४६३ : मृगाणां चर्या-इतश्चेतश्चोत्प्लवनात्मकं चरणं पुनदृष्टान्तत्वेन समर्थनं तत्तस्य प्रायः प्रशमप्रधानत्वादिति सम्प्रदायः। मृगचर्या तां, 'मितचारिता' वा परिमितभक्षणात्मिकां 'चरित्या' आसेव्य २. वही, पत्र ४६२ : 'महारण्य' इति महाग्रहणममहति शरण्ये ऽपि परिमिताहार एव हि स्वरूपेणैव मृगा भवन्ति।....मृगाणां चर्या-चेष्टा कश्चित्कदाचित्पश्येत् दृष्ट्वा च कृपातश्चिकित्सेदपि, श्रूयते हि केनचिद् स्वातन्त्र्योपवेशनादिका यस्यां सा मृगचर्यामृगा-श्रयभूस्ताम् । भिषजा व्याघ्रस्य चक्षुरुद्घाटितमटव्यामिति । वही, पत्र ४६३ : 'अणेगय' त्ति अनेकगो यथा ह्यसौ वृक्षमूले नेकस्मिन्नेवारते ३. (क) बृहवृत्ति, पत्र ४६२ : "प्रणामयेत्' अर्पयेत्, 'अः पणाम' इति किन्तु कदाचित्स्यचिदेवमेषोऽप्यनियतस्थानस्थतया। वचनात्। ८. वही, पत्र ४६३ : जहाति-त्यजति उपधिम् ---उपकरणभावरणादि (ख) तुलसीमंजरीः सूत्र ८८४ : अरल्लिय-चच्चुप्पपणामाः। द्रव्यतो भावतस्तु छमादि येनात्मा नरक उपधीयते, ततश्च प्रबजतीत्युक्तं ४. देशीनाममाला, ७८६ : वल्लरमरण्णमहिसक्खेत्तजुवसमीरणिज्जलवणेसु। भवति। ५. बृहवृत्ति, पत्र ४६२ : उक्तं च-“गहणमवाणियदेसं रणे छेत्तं च ६. ठाणं ३५०५। वल्लरं जाण।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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