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________________ अध्ययन ३२ : श्लोक १७-२५ प्रमादस्थान ५५५ १७. मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स मोक्षाभिकाक्षिणोपि मानवस्य संसारभीरुस्स ठियरस धम्मे। संसारभीरो स्थितस्य धमें। नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए नैतादृशं दुस्तरमस्ति लोके जहित्थिओ बालमणोहराओ।। यथा स्त्रियो बालमनोहराः।। मोक्ष चाहने वाले संसार-भीरु एवं धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में और कोई वस्तु ऐसी दुस्तर नहीं है, जैसे दुस्तर अज्ञानियों के मन को हरने वाली स्त्रियां हैं। १८. एए य संगे समइक्कमित्ता एतांश्च सङ्गान् समतिक्रम्य जो मनुष्य इन स्त्री-विषयक आसक्तियों का पार पा सुहुत्तरा चेव भवंति सेसा। सुखोत्तराश्चैव भवन्ति शेषाः। जाता है, उसके लिए शेष सारी आसक्तियां वैसे ही जहा महासागरमुत्तरित्ता यथा महासागरमुत्तीर्य सुतर (सुख से पार पाने योग्य) हो जाती है जैसे नई भवे अवि गंगासमाणा।। नदी भवेदपि गंगासमाना।। महासागर का पार पाने वाले के लिए गंगा जैसे बड़ी नदी। १६. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं कामानुगृद्धिप्रभवं खलु दुःखं सब जीवों के, और क्या देवताओं के भी जो कुछ सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य। कायिक और मानसिक दुःख है, वह काम-भोगों की जं काइयं माणसियं च किंचि यत्कायिकं मानसिकं च किंचित् सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतराग उस तस्संतगं गच्छइ वीयरागो।। तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः ।। दुःख का अंत पा जाता है। २०. जहा य किंपागफला मणोरमा यथा च किम्पाकफलानि मनोरमाणि जैसे किंपाक फल खाने के समय रस और वर्ण से रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा। रसेन वर्णेन च भुज्यमानानि। मनोरम होते हैं और परिपाक के समय जीवन का ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा तानि 'खुहुए' जीविते पच्यमानानि अन्त कर देते हैं," कामगुण भी विपाक काल में ऐसे एओवमा कामगुणा विवागे।। एतदुपमाः कामगुणाः विपाके।। ही होते हैं। २१. जे इंदियाणं विसया मणुण्णा ये इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञाः न तेसु भावं निसिरे कयाइ। न तेषु भावं निसृजेत् कदापि। न यामणुण्णेसु मणं पि कुज्जा न चामनोज्ञेषु मनोऽपि कुर्यात् समाहिकामे समणे तवस्सी।। समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी।। समाधि चाहने वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के जो मनोज्ञ विषय हैं उनकी ओर भी मन न करे-राग न करे और जो अमनोज्ञ विषय है उनकी ओर भी मन न करे--द्वेष न करे। २२. चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति चक्षुषो रूपं ग्रहणं वदन्ति रूप चक्षु का ग्राह्य-विषय है। जो रूप राग का हेतु तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तद् रागहेतु तु मनोज्ञमाहुः। होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है, जो द्वेष का हेतु तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु तद् दोषहेतु अमनोज्ञमाहुः होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो मनोज्ञ समो य जो तेस स वीयरागो।। समश्च यस्तयोः स वीतरागः।। और अमनोज्ञ रूपों में समान रहता है, वह वीतराग होता है। २३. रुवस्स चक्खं गहणं वयंति रूपस्य चक्षुर्ग्रहणं वदन्ति चक्षु रूप का ग्रहण करता है। रूप चक्षु का ग्राह्य है। चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति। चक्षुषो रूपं ग्रहणं वदन्ति। जो रूप राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ१२ कहा रागस्स हेउं समणण्णमाह रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु।। दोषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ।। अमनोज्ञ कहा जाता है। २४. रुवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं रूपेषु या गृद्धिमुपैति तीव्रां जो मनोज्ञ रूपों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकालियं पावड से विणासं। अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे रागाउरे से जह वा पयंगे रागातुरः स यथा वा पतङ्गः प्रकाश-लोलुप पतंगा रूप में आसक्त होकर मृत्यु को आलोयलोले समुवेइ मच्चूं।। आलोकलोलः समुपैति मृत्युम्।। प्राप्त होता है। २५. जे यावि दोसं समवेइ तिव्वं यश्चापि दोषं समुपैति तीव्र जो अमनोज्ञ रूपों में तीव्र द्वेष करता है, वह अपने तंसिक्खणे से उ उवेइ दुक्खं। तस्मिन्क्षणे स तूपैति दुःखम्। दुर्दम दोष से उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। रूप दुइंतदोसेण सएण जंतू दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तु: उसका कोई अपराध नहीं करता। न किंचि रूवं अवरज्झई से।। न किंचिदूपमपराध्यति तस्य।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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