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________________ उत्तरज्झयणाणि ५५६ अध्ययन ३२ : श्लोक २६-३४ २६. एगंतरत्ते रुइरंसि रूवे एकान्तरक्तो रुचिरे रूपे जो मनोहर रूप में एकान्त अनुरक्त होता है और अतालिसे से कुणई पओसं। अतादृशे स करोति प्रदोषम्। अमनोहर रूप में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त मुनि उनमें न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः।।। लिप्त नहीं होता। २७. रूवाणुगासाणुगए य जीवे रूपानुगाशानुगतश्च जीवान् मनोज्ञ रूप की अभिलाषा के पीछे चलने वाला पुरुष चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान। अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा करता चित्तेहि ते परितावेइ बाले चित्रैस्तान्परितापयति बालः है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला वह पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिडे ।। पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः ।। क्लेश-युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार से उन चराचर जीवों को परितप्त और पीड़ित करता है। २८. रूवाणुवाएण परिग्गहेण रूपानुपातेन परिग्रहेण रूप में अनुराग और ममत्व का भाव होने के कारण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। मनुष्य उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार करता वए विओगे य कहिं सुहं से? व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य? है। उसका व्यय और वियोग होता है। इन सब में संभोगकाले य अतित्तिलाभे।। सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः।। उसे सुख कहां है? और क्या, उसके उपभोग-काल में भी उसे अतृप्ति ही होती है। २६. रूवे अतित्ते य परिग्गहे य रूपे अतृप्तश्च परिग्रहे च जो रूप में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में मनोतमत्तो न वेड तटिं। सक्कोपसक्तो नोपैति तष्टिम। आसक्त-उपसक्त होता है, उसे सन्तुष्टि नहीं मिलती। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य वह असन्तुष्टि के दोष से दुःखी और लोभग्रस्त लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम् ।। होकर दूसरों की वस्तुएं चुरा लेता है। ३०. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिण: वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य। रूपे अतृप्तस्य परिग्रहे च। रूप तथा परिग्रह में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष मायामुसं वड्डइ लोभदोसा मायामृषा वर्द्धते लोभदोषात् के कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः।। माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। ३१. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य मृषा पश्चाच्च पुरस्ताच्च असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय पओगकाले य दुही दुरंते। प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः। वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय एवं अदत्ताणि समाययंतो एवमदत्तानि समाददानः होता है। इस प्रकार वह रूप में अतृप्त होकर चोरी रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।। रूपे अतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ।। करता हुआ दुःखी और आश्रय-हीन हो जाता है। ३२. रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं रूपानुरक्तस्य नरस्यैवं रूप में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानुसार कदाचित् कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। कुतः सुखं भवेत्कदापि किंचित् ? किंचित् सुख भी कहां से होगा? जिस उपभोग के तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है—कष्ट झेलता हैनिव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। निवर्तयति यस्य कृते दुःखम्।। वह उपभोग में भी क्लेश-दुःख (अतृप्ति का दुःख) बना रहता है। ३३. एमेव रूवम्मि गओ पओसं एवमेव रूपे गतः प्रदोषं इसी प्रकार जो रूप में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उपैति दुःखौघपरम्पराः। अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेष-युक्त चिंत्त पदचित्तो य चिणाड कम्मं प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म वाला व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है। वही परिणाम-काल जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके।। में उसके लिए दुःख का हेतु बनता है। ३४. रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो रूपे विरक्तो मनुजो विशोकः रूप से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे एएण दुक्खोहपरंपरेण। एतेन दुःखौघपरम्परेण। कमलिनी का पत्र जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही न लिप्पए भवमज्झे वि संतो न लिप्यते भवमध्येऽपि सन् वह संसार में रह कर अनेक दुःखों की परम्परा से जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।। जलेनेव पुष्पकरिणीपलाशम् ।। लिप्त नहीं होता। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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