________________
३२, ३३ रोग परीषह ।
३४,३५ तृष्ण
३६, ३७ जल्ल परीषह ।
३८,३६ सत्कार - पुरस्कार परीषह ।
- स्पर्श-परीषह।
तीसरा अध्ययन : चतुरंगीय (चार दुर्लभ अंगों का आख्यान)
१ दुर्लभ अंगों का नाम-निर्देश। २- ७ मनुष्यत्व प्राप्ति की दुर्लभता ।
८ धर्म-श्रवण की दुर्लभता ।
१ जीवन की असंस्कृतता और अप्रमाद का उपदेश ।
२ पाप कर्म से धन अर्जन के अनिष्ट परिणाम ।
३ कृत कर्मों का अवश्यंभावी परिणाम ।
४ कर्मों की फल प्राप्ति में पर की असमर्थता ।
(२८)
५ धन की अत्राणता और उसके व्यामोह से दिग्मूढता । ६ भारण्ड पक्षी के उपमान से क्षण भर भी प्रमाद न करने का उपदेश ।
६ श्रद्धा की दुर्लभता ।
१० वीर्य की दुर्लभता ।
११ दुर्लभ अंगों की प्राप्ति से कर्म-मुक्त होने की संभवता ।
२०
चौथा अध्ययन असंस्कृत (जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण का प्रतिपादन)
१०
श्लोक १२ अध्ययन का उपक्रम और मरण के प्रकारों का नाम-निर्देश । ३ मरण का काल-निर्धारण ।
४-७ कामासक्त व्यक्ति द्वारा मिथ्या भाषण का आश्रय ।
८,६ कामसक्ति हिंसा का हेतु हिंसा से दोष-परम्परा का विस्तार |
काम - रत व्यक्ति द्वारा शिशुनाग की तरह दुहरा कर्म-मल संचय ।
११- १३ रोगांतक होने पर कर्म के अनिष्ट परिणामों की आशंका से भय-युक्त अनुताप ।
१४- १६ विषम मार्ग में पड़े हुए गाड़ीवान की तरह धर्म- - च्युत व्यक्ति द्वारा शोकानुभूति और परलोक भय से संत्रस्त अवस्था में अकाम-मृत्यु ।
अकाम-मरण का उपसंहार और सकाम-मरण का आरम्भ ।
१८ संयमी पुरुषों का प्रसाद-युक्त और आघात रहित मरण ।
१७
४०, ४१ ४२, ४३ ४४, ४५ ४६
Jain Education International
१२
१३
१४- १६
२ सत्य की गवेषणा और जीवों के प्रति मैत्री का उपदेश । ३ कृत कर्मों के विपाक के समय स्वजन - परिजनों की असमर्थता ।
६
१०
७ गुणोपलब्धि तक शरीर पोषण का विधान, फिर अनशन का उपदेश ।
पांचवां अध्ययन : अकाममरणीय (मरण के प्रकार और स्वरूप - विधान)
प्रज्ञा परीषह ।
अज्ञान परीषह ।
दर्शन परीषह ।
परीषहों को समभाव से सहने का उपदेश ।
११,१२ श्रमण के लिए अनुकूल और प्रतिकूल परीषों को समभाव से सहने का निर्देश ।
धर्म-स्थिति का आधार ।
1
कर्म-हेतुओं को दूर करने से ऊर्ध्व दिशा की प्राप्ति । शील की आराधना से देवलोकों की प्राप्ति वहां से च्युत होकर उच्च व समृद्ध कुलों में जन्म और फिर विशुद्ध बोधि का लाभ ।
दुर्लभ अंगों के स्वीकार से सर्व कर्माश-मुक्तता ।
पृ० ८०-९३
२५-२८
१३ जीवन को शाश्वत मानने वालों का निरसन और शरीर-भेद तक गुणाराधना का आदेश ।
पृ० ९४ - ११६
छठा अध्ययन : क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय ( ग्रन्थ-त्याग का संक्षिप्त निरूपण )
श्लोक १ अविद्या-भव भ्रमण का हेतु ।
छन्द निरोध से मोक्ष की संभवता ।
शाश्वत वाद का निरसन ।
विवेक जागरण के लिए एक क्षण भी न खोने का आहान ।
१६
सकाम मरण की दुर्लभता ।
२०
साधु और गृहस्थ का तुलनात्मक विवेचन | २१ बाह्याचारों से साधुत्व की रक्षा असंभव ।
२२ दुःशील और शील के निश्चित परिणाम ।
२३ श्रावक आचार का निर्देश ।
२४ सुव्रती मनुष्य की सुगति प्राप्ति ।
३१
३२
पृ० ६३-७९
५
६
२६, ३० बहुश्रुत मुनि का मरणकाल में सम-भाव तथा उद्विग्न न होने का उपदेश ।
संवृत- भिक्षु का अपवर्ग या स्वर्ग-गमन देवताओं की समृद्धि और सम्पदा का वर्णन देव आवासों की प्राप्ति में उपशम और संयम की प्रधानता ।
संलेखना में शरीर भेद की आकांक्षा ।
सकाम-मरण के प्रकारों में से किसी एक के स्वीकार का उपदेश ।
पृ० ११७-१२८
४ सम्यग् दर्शन वाले पुरुष द्वारा आंतरिक परिग्रह का
त्याग ।
बाह्य परिग्रह त्याग से काम-रूपता की प्राप्ति । अहिंसा के विचार का व्यावहारिक आधार ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org