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सामाचारी
और (३) उद्घाट - पौरुषी— पौन - पौरुषी ।'
मुख-पोतिका आदि दस उपकरणों का प्रतिलेखना-काल प्रभात समय ( प्रतिक्रमण के पश्चात् — सूर्योदय से पूर्व ) है । तीसरा प्रहर बीतने पर चौदह उपकरणों की प्रतिलेखना का समय आता है। चौदह प्रतिलेखनीय उपकरणों का विवरण निम्न प्रकार पाया जाता है :
ओमनियुक्ति
(१) पात्र
(२) पात्रबंध (३) पात्र - स्थापन
(४) पात्र - केसरिका
(५) पटल
(६) रजस्त्राण
(७) गुच्छग
( ८-१० ) तीन पछेवड़ी
(११) रजोहरण
(१२) मुख वस्विका (१३) मात्रक (१४) चोलपट्टकर पौन - पौरुषी के समय ७ 'जाती थी। वे उपकरण ये हैं
ओघनिर्युक्ति (१) पात्र
(२) पात्र बन्ध
१.
(३) पात्र - स्थापन (४) पात्र - केसरिका
(५) पटल
(६) रजस्त्राण
(३) पटल
(४) पात्र - केसरिका
(५) पात्र बन्ध
(६) रजस्त्राण (७) पात्र - स्थापन
(७) गुडग
५. उत्तर गुणों ( स्वाध्याय आदि) की उत्तरगुणे
प्रवचनसारोद्वार (१) मुख-पोतिका
(२) चोलपट्टक
(३) गोच्छग
(४) पात्र - प्रतिलेखनिका (५) पात्र - बंध
(६) पटल
(७) रजस्त्राण
(८) पात्र स्थापन (६) मात्रक
(१०) पात्र (११) रजोहरण
( १२-१४ ) तीन पछेवड़ी * उपकरणों की प्रतिलेखना की
२. ओघनिर्युक्ति, गाथा ६६८-६७० :
प्रवचनसारोद्धार
(१) मुखपोतिका (२) गोच्छग
पांच महाव्रत मूलगुण हैं। स्वाध्याय, ध्यान आदि उनकी अपेक्षा उत्तरगुण कहलाते हैं। उत्तरगुण का सामान्य काल विभाग
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प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५६०-५६२ : पडिलेहणाण गोसावराहउग्धाडपोरिसीसु तिगं । तत्थ पढमा अणुग्गयसूरे पडिक्कमणकरणाओ ।। मुहपोत्ति चोलपट्टो कप्पतिगं दो निसिज्ज रयहरणं । संथारुत्तरपट्टी दस पेहाऽणुग्गए सूरे।। उवगरणचउद्दसगं पडिलेहिज्जइ दिणस्स पहरतिगे।
पत्तं पत्ताबंधो, पायवणं च पायकेसरिया । पडलाई रयत्ताणं च गुच्छओ पायनिज्जोगो ।। तिन्नेव च पच्छागा, रयहरणं चैव होइ मुहपत्ती । एसो दुवालसविहो, उवही जिणकप्पियाणं तु || एए चैव दुवालस, मत्तग अइरेग चोलपट्टो य । एसो चउद्दसविहो, उवही पुण थेरकप्पम्मि ।।
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||
इस प्रकार बतलाया गया है: प्रथम प्रहर में स्वाध्याय ।
द्वितीय प्रहर में — ध्यान -पढ़े हुए विषय का अर्थ - चिन्तन अथवा मानसिक एकाग्रता का अभ्यास ।
तीसरे प्रहर में— भिक्षाचारी, उत्सर्ग आदि । चतुर्थ प्रहर में — फिर स्वाध्याय ।
यह दिनचर्या की स्थूल रूपरेखा है। इसमें मुख्य कार्यों का निर्देश किया गया है। प्रतिलेखना, वैयावृत्त्य आदि आवश्यक विधियों का इसमें उल्लेख नहीं है । प्रतिलेखना का उल्लेख २१-२२ वें श्लोक में स्वतंत्र रूप से किया गया है।
अध्ययन २६ : श्लोक ८ टि० ५
यह विभाग उस समय का है जब आगम- सूत्र लिखित नहीं थे। उन्हें कंठस्थ रखने के लिए अधिक समय लगाना होता था । संभवतः इसीलिए प्रथम और चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय की व्यवस्था की गई। इन्हें 'सूत्र - पौरुषी' भी कहा जाता था। दूसरे प्रहर में अर्थ समझा जाता था। इसीलिए उसे 'अर्थ - पौरुषी ' कहा जाता था। जब भिक्षुओं के लिए एक वक्त भोजन —- एक बार खाने की व्यवस्था थी तब भिक्षा के लिए तीसरा प्रहर ही सर्वाधिक उपयुक्त था और उस समय जनता के भोजन का समय भी संभवतः यही था। कुछ आचार्यों के अभिमत में यह अभिग्रहधारी भिक्षुओं की विधि है। अठारहवें श्लोक में कथित नींद लेने की विधि से तुलना करने पर उक्त अभिमत संगत लगता है।
छेद- सूत्रों द्वारा प्रथम एवं चरम प्रहर की भिक्षा का भी समर्थन होता है।" ओघनिर्युक्ति में आपवादिक विधि के अनुसार दो-तीन बार की भिक्षा का भी विधान मिलता है। यह भी हो सकता है कि ये आपवादिक-विधियां छेद-सूत्रों की रचना - काल में मान्य हुई हों।
ओषनियुक्ति के अनुसार नींद लेने की विधि विभिन्न व्यक्तियों की अपेक्षा से इस प्रकार है- प्रथम और चतुर्थ प्रहर में सब साधु स्वाध्याय करते हैं, बिचले दो प्रहरों में नींद लेते हैं। वृषभ - साधु दूसरे प्रहर में भी जागते हैं, वे केवल तीसरे प्रहर ही सोते हैं। आचार्य तीसरे प्रहर में स्वाध्याय करते हैं।
३.
प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५६२ वृत्ति, पत्र १६६ ।
४.
ओघनियुक्ति, गाथा ६६८ ।
५. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५६२ वृत्ति, पत्र १६६ ।
६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५४३ ।
७.
८.
(ख) उत्तराध्ययन जोड़, ढाल २६।३८-४६ । बृहदूकल्प, ५।६ ।
ओघनिर्युक्ति भाष्य, गाथा १४६ :
एवंपि अपरिचत्ता, काले खवणे अ असहुपुरिसे य । कालो गिम्हो उ भवे, खमगो वा पढमबिइएहिं ।।
६. वही, गाथा ६६० :
सव्वेवि पढमजामे, दोन्नि उ वसभा उ आइमा जामा । तइओ होइ गुरूणं, चउत्थओ होइ सव्वेसिं । ।
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