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________________ उत्तरज्झयणाणि ६१० अध्ययन ३६ : श्लोक ६०-६८ ६०. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए आऊजीवाण अंतरं।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये अब्जीवानामन्तरम् ।। उनका अन्तर—-अप्काय को छोड़ कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। ६२. दुविहा वणस्सईजीवा सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो।। द्विविधा वनस्पतिजीवाः सूक्ष्मा बादरास्तथा। पर्याप्ता अपर्याप्ताः एवमेते द्विविधा पुनः।। वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर। इन दोनों में पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद होते हैं। ६३. बायरा जे उ पज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया। साहारणसरीरा य पत्तेगा य तहेव य।। बादरा ये तु पर्याप्ताः द्विविधास्ते व्याख्याताः। साधारणशरीराश्च प्रत्येकाश्च तथैव च।। बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिक जीवों के दो भेद हैं(१) साधारण-शरीर और (२) प्रत्येक-शरीर। ६४. पत्तेगसरीरा उ णेगहा ते पकित्तिया। रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य लया वल्ली तणा तहा।। प्रत्येकशरीरास्तु अनेकधा ते प्रकीर्तिताः। रुक्षा गुच्छाश्च गुल्माश्च लता वल्ली तृणानि तथा।। प्रत्येक-शरीर वनस्पतिकायिक जीवों के अनेक प्रकार हैं—वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली और तृण । ६५. लयावलय पव्वगा कुहुणा जलरुहा ओसहीतिणा। हरियकाया य बोद्धव्वा पत्तेया इति आहिया।। लतावलयानि पर्वजाः लता-वलय (नारियल आदि), पर्वज (ईख आदि), कुहणा जलरुहा औषधितृणानि। कुहण ( भूफोड़ आदि), जलरुह (कमल आदि), हरितकायाश्च बोद्धव्याः औषधि-तृण ( अनाज) और हरित-काय-ये सब प्रत्येका इति आख्याताः।। प्रत्येक शरीर हैं। साधारण-शरीर वनस्पतिकायिक जीवों के अनेक प्रकार हैं-आलू, मूली, अदरक, ६६. साहारणसरीरा उ णेगहा ते पकित्तिया। आलुए मूलए चेव सिंगबेरे तहेव य।। साधारणशरीरास्तु अनेकविधा ते प्रकीर्तिता। आलुको मूलकश्चैव शृङ्गबेरं तथैव च।। हिरलीकन्द, सिरिलीकन्द, सिस्सिरिलीकन्द, जावईकन्द, केद-कंदलीकन्द, प्याज, लहसुन, कन्दली, कुस्तुम्बक, ६७. हिरिली सिरिली सिस्ििरली हिरली सिरिली सिस्सिरिली जावई केदकंदली। जावई केदकन्दली। पलंदूलसणकंदे य पलाण्डुलशुनकन्दश्च कंदली य कुडुंबए।। कन्दली च कुस्तुम्बकः ।। ६८. लोहि णीहू य थिहू य लोही स्निहुश्च स्तिभुश्च कुहगा य तहेव य। कुहकाश्च तथैव च। कण्हे य वज्जकंदे य कृष्णश्च वज्रकन्दश्च कंदे सूरणए तहा।। कन्दः सूरणकस्तथा।। लोही, स्निहु, स्तिभु, कुहक, कृष्ण, वज्रकन्द, सुरणकन्द, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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