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________________ जीवाजीवविभक्ति ६०९ अध्ययन ३६ : श्लोक ८१-८६ ८१. असंखकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। कायठिई पुढवीणं तं कायं तु अमुंचओ।। असंख्यकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त्त जघन्यकम्। कायस्थितिः पृथिवीनां तं कायं त्वमुंचताम्।। उनकी काय-स्थिति-निरन्तर उसी काय में जन्म लेते रहने की काल-मर्यादा-जधन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यातकाल की है। ८२. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए पुढवीजीवाण अंतरं।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये पृथिवीजीवानामन्तरम्।। उनका अन्तर—पृथ्वीकाय को छोड़ कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने का काल-जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है। ८३. वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। ८४. दुविहा आउजीवा उ सुहमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो।। द्विविधा अब्जीवास्तु सूक्ष्मा बादरास्तथा। पर्याप्ता अपर्याप्ताः एवमेते द्विधा पुनः।। अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैं—सूक्ष्म और बादर। इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद होते हैं। ८५. बायरा जे उ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया। सुद्धोदए य उस्से हरतणू महिया हिमे।। बादरा ये तु पर्याप्ताः पंचधा ते प्रकीर्तिताः। शुद्धोदकं चावश्यायः हरतनुमहिका हिमम्।। बादर पर्याप्त अप्कायिक जीवों के पांच भेद होते हैं—(१) शुद्धोदक, (२) ओस, (३) हरतनु, (४) कुहासा और (५) हिम। ८६. एगविहमणाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया। सुहमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा।। एकविधा अनानात्वाः सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः। सूक्ष्माः सर्वलोके लोकदेशे च बादराः।। सूक्ष्म अप्कायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं, उनमें नानात्व नहीं होता। वे समूचे लोक में तथा बादर अप्कायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। ८७. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयुस्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः सात हजार वर्ष की है। सप्तैव सहस्मणि वर्षाणामुत्कर्षिता भवेत्। आयुः स्थितिरपां अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ।। सत्तेव सहस्साई वासाणुक्कोसिया भवे। आउट्ठिई आऊणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। असंखकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्निया। कायट्ठिई आऊणं तं कायं तु अमुंचओ।। ८६. असंख्यकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यका। कायस्थितिरपां तं कायं त्वमुंचताम्।। उनकी काय-स्थिति-निरन्तर उसी काय में जन्म लेते रहने की काल-मर्यादा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यातकाल की है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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