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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३६ : श्लोक ७२-८०
७२. किण्हा नीला य रुहिरा य
हालिद्दा सुक्किला तहा। पंडुपणगमट्टिया खरा छत्तीसईविहा।।
कृष्णा नीलाश्च रुधिराश्च हारिद्राः शुक्लास्तथा। पाण्डु-पनक-मृत्तिका खराः षत्रिंशद्विधाः ।।
(१) कृष्ण, (२) नील, (३) रक्त, (४) पीत, (५) श्वेत, (६) पांडु (भूरीमिट्टी) और (७) पनक (अति सूक्ष्म रज)। कठोर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं :
७३.
पुढवी य सक्करा वालुया य पृथिवी च शर्करा बालुका च उवले सिला य लोणूसे। उपल: शिला च लवणोषौ। अयतंबतउयसीसग
अयस्ताम्रत्रपुकसीसकरुप्पसुवण्णे य वइरे य।।। रूप्यसुवर्णं च वज्रं च।।
(१) शुद्धपृथ्वी, (२) शर्करा, (३) बालू, (४) उपल, (५) शिला, (६) लवण, (७) नौनी मिट्टी, (८) लोहा, (६) ताम्बा, (१०) रांगा, (११) शीशा, (१२) चांदी, (१३) सोना, (१४) वज्र,
७४. हरियाले हिंगुलुए
मणोसिला सासगंजणपवाले। अब्भपडलब्भवालुय बायरकाए मणिविहाणा।।
हरितालं हिंगुलक:
(१५) हरिताल, (१६) हिंगुल, (१७) मैनसिल, मनःशिला सस्यकांजनप्रवालानि। (१८) सस्यक, (१६) अंजन, (२०) प्रवाल, अभ्रपटलमभ्रबालुका
(२१) अभ्रपटल, (२२) अभ्रबालुका । मणियों के भेद, बादरकाये मणिविधानानि।। जैसे
७५. गोमेज्जए य रुयगे
अंके फलिहे य लोहियक्खे य। मरगयमसारगल्ले भुयमोयगइंदनीले य।
गोमेदकश्च रुचकः
(२३) गोमेदक, (२४) रुचक, (२५) अंक, अंकः स्फटिकश्च लोहिताक्षश्च। (२६) स्फटिक और लोहिताक्ष, (२७) मरकत एवं मरकतमसारगल्लः
मसारगल्ल, (२८) भुजमोचक, (२६) इन्द्रनील, भुजमोचक इन्द्रनीलश्च।।
७६. चंदणगेरुयहंसगब्भ
पुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे। चंदप्पहवेरुलिए जलकंते सूरकंते य।।
चन्दनगैरिकहंसगर्भः
(३०) चन्दन, गेरुक एवं हंसगर्भ, (३१) पुलक, पुलकः सौगन्धिकश्च बोद्धव्यः। (३२) सैगन्धिक, (३३) चन्द्रप्रभ, (३४) वैडूर्य, चन्दप्रभो वैडूर्यः
(३५) जलकान्त और (३६) सूर्यकान्त। जलकान्तः सूर्यकान्तश्च ।।
७७. एए खरपुढवीए
भेया छत्तीसमाहिया। एगविहमणाणत्ता सुहमा तत्थ वियाहिया।।
एते खरपृथिव्याः भेदाः षट्त्रिंशदाख्याताः। एकविधा अनानात्वाः सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः।।
कठोर पृथ्वी के ये छत्तीस प्रकार होते हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं। उनमें नानात्व नहीं होता।
७८. सुहुमा सव्वलोगम्मि
लोगदेसे य बायरा। इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउब्विहं ।।
सूक्ष्माः सर्वलोके लोकदेशे च बादराः। इत: कालविभागं तु तेषां वक्ष्ये चतुर्विधम्।।
सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव समूचे लोक में और बादर पृथ्वीकायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा।
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं।
७६. संतई पप्पणाईया
अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया
सपज्जवसिया वि य।। ८०. बावीससहस्साई
वासाणुक्कोसिया भवे। आउठिई पुढवीणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।।
संततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। द्वाविंशतिसहस्राणि वर्षाणामुत्कर्षिता भवेत् । आयुःस्थितिः पृथिवीनां अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका।।
उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः बाईस हजार वर्ष की है।
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