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________________ उत्तरज्झयणाणि मदनमञ्जरी को देखा। वह उसमें आसक्त हो गया । ज्यों-त्यों रात बीती । प्रातःकाल हुआ। राजा द्विमुख वहां आया। उसने प्रद्योत को उदासीन देखा। कारण पूछने पर उसने सारी बात कही। उसने कहा- 'यदि मदनमञ्जरी नहीं मिली तो मैं अग्नि में कूद कर मर जाऊंगा।' द्विमुख ने अपनी कन्या का विवाह उससे कर दिया । चण्डप्रद्योत अपनी नववधू को साथ ले उज्जैनी चला गया। एक बार इन्द्र महोत्सव' आया। राजा की आज्ञा से नागरिकों ने इन्द्रध्वज की स्थापना की। वह इन्द्रध्वज अनेक प्रकार के पुष्पों, घण्टियों तथा मालाओं से सज्जित किया गया। लोगों ने उसकी पूजा की। स्थान-स्थान पर नृत्य, गीत होने लगे । सारे लोग मोद-मग्न थे। इस प्रकार सात दिन बीते। पूर्णिमा के दिन महाराज द्विमुख ने इन्द्रध्वज की पूजा की। पूजा-काल समाप्त हुआ। लोगों ने इन्द्रध्वज के आभूषण उतार लिए और काष्ठ को सड़क पर फेंक दिया। एक दिन राजा उसी मार्ग से निकला। उसने उस इन्द्रध्वज काष्ठ को मलमूत्र में पड़े देखा। उसे वैराग्य हो आया। वह प्रत्येक-बुद्ध हो पंचमुष्टि लोच कर प्रव्रजित हो गया। ३. नमि अवन्ती देश में सुदर्शन नाम का नगर था। वहां मणिरथ नाम का राजा राज्य करता था। युगबाहु उसका भाई था । उसकी पत्नी का नाम मदनरेखा था। मणिरथ ने युगबाहु को मार डाला। मदनरेखा गर्भवती थी। वह वहां से अकेली चल पड़ी। जंगल में उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसे रत्नकम्बल में लपेटकर वहीं रख दिया और स्वयं शौच कर्म करने जलाशय में गई। वहां एक जलहस्ती ने उसे सूंड में पकड़ा और आकाश में उछाला। विदेह राष्ट्र के अन्तर्गत मिथिला नगरी का नरेश पद्मरथ शिकार करने जंगल में आया। उसने उस बच्चे को उठाया। वह निष्पुत्र था । पुत्र की सहज प्राप्ति पर उसे प्रसन्नता हुई। बालक उसके घर में बढ़ने लगा। उसके प्रभाव से पद्मरथ के शत्रु राजा भी नत हो गए। इसलिए बालक का नाम 'नमि' रखा । युवा होने पर उसका विवाह १००८ कन्याओं के साथ सम्पन्न हुआ। ३०० पद्मरथ विदेह राष्ट्र की राज्यसत्ता नमि को सौंप प्रव्रजित हो गया। एक बार महाराज नमि को दाह ज्वर हुआ। उसने छह मास तक अत्यन्त वेदना सही। वैद्यों ने रोग को असाध्य बतलाया । दाह-ज्वर को शांत करने के लिए रानियां स्वयं चन्दन घिस रही थीं। उनके हाथ में पहिने कंकण बज रहे थे उनकी आवाज से राजा को कष्ट होने लगा। उसने कंकण 1 9. इस महोत्सव का प्रारम्भ भरत ने किया था। निशीथचूर्णि (पत्र ११७४) में इसको आषाढी पूर्णिमा के दिन मनाने का तथा आवश्यक निर्युक्ति हारिभद्रीया वृत्ति (पत्र ३५६) में कार्तिक पूर्णिमा को मनाने का उल्लेख है। लाड देश में श्रावण पूर्णिमा को यह महोत्सव मनाया जाता था। Jain Education International अध्ययन १८ : श्लोक ४५ टि० २८ उतार देने के लिए कहा। सभी रानियों ने सौभाग्य चिन्ह स्वरूप एक-एक कंकण को छोड़कर शेष सभी कंकण उतार दिए। कुछ देर बाद राजा ने अपने मंत्री से पूछा - 'कंकण का शब्द क्यों नहीं सुनाई दे रहा है ?' मंत्री ने कहा- 'राजन् ! उसके घर्षण से उठे हुए शब्द आपको अप्रिय लगते हैं, यह सोचकर सभी रानियों ने एक-एक कंकण के अतिरिक्त शेष कंकण उतार दिए हैं। अकेले में घर्षण नहीं होता। घर्षण के बिना शब्द कहां से उठे ?" राजा नमि ने सोचा- 'सुख अकेलेपन में है। जहां द्वंद्व है, दो हैं वहां दुःख है ।' विचार आगे बढ़ा। उसने सोचा यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊंगा तो अवश्य ही प्रव्रज्या ग्रहण कर लूंगा। उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा थी। राजा इसी चिंतन में लीन हो सो गया। रात्रि के अन्तिम प्रहर में उसने स्वप्न देखा । नन्दीघोष की आवाज से जागा । उसका दाह-ज्वर नष्ट हो चुका था। उसने स्वप्न का चिन्तन किया। उसे जाति-स्मृति हो गई। वह प्रतिबुद्ध हो प्रव्रजित हो गया। * ४ नग्गति ( नग्गई ) गांधार जनपद में पुण्ड्रवर्द्धन नाम का नगर था। वहां सिंहरथ नाम का राजा राज्य करता था। एक बार उत्तरापथ से उसके दो घोड़े भेंट आए। एक दिन राजा और राजकुमार दोनों घोड़ों पर सवार हो उनकी परीक्षा करने निकले। राजा ज्यों-ज्यों लगाम खींचता त्यों-त्यों वह तेजी से दौड़ता था। दौड़ते-दौड़ते वह बारह योजन तक चला गया। राजा ने लगाम ढीली छोड़ दी। घोड़ा वहीं रुक गया। उसे एक वृक्ष के नीचे बांध राजा घूमने लगा। फल खाकर भूख शांत की। रात बिताने के लिए राजा पहाड़ पर चढ़ा। वहां उसने सप्तभौम वाला एक सुन्दर महल देखा। राजा अन्दर गया। वहां एक सुन्दर कन्या देखी। एक दूसरे को देख दोनों में प्रेम हो गया। राजा ने कन्या का परिचय पूछा, पर उसने कहा-'पहले मेरे साथ विवाह करो, फिर मैं अपना सारा वृत्तांत तुम्हें बताऊंगी।' राजा ने उसके साथ विवाह किया। कन्या का नाम कनकमाला था। रात बीती । प्रातःकाल कन्या ने कथा सुनाई। राजा ने दत्तचित्त हो कथा सुनी। उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया । वह एक महीने तक वहीं रहा। एक दिन उसने कनकमाला से कहा- 'प्रिये ! शत्रुवर्ग कहीं मेरे राज्य का नाश न कर दे, इसलिए अब मुझे वहां जाना चाहिए। तू मुझे आज्ञा दे।' कनकमाला ने कहा- 'जैसी आपकी आज्ञा ! परन्तु आपका नगर यहां से दूर है। आप २. ३. ४. विस्तार के लिए देखें- सुखबोधा, पत्र १३५-१४१ । सुखबोधा, पत्र १३६-१४५ । बौद्ध जातक (सं० ४४८) में नग्गजी और शतपथ ब्राह्मण ( ८1918190) में नग्नजित् नाम है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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