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________________ सामाचारी इन प्रयोजनों के आधार पर कहा जा सकता है कि मुखवस्त्रिका एक यस्त्र खंड है, जो मुनिचर्या का एक उपकरण है । ४२७ अध्ययन २६ : श्लोक २३-३० टि० १६-१६ में तीन-तीन बार किए जाते हैं। इस प्रकार एक भाग में नौ खोटक होते हैं, दोनों में अठारह । २६ वें श्लोक में आरभटा आदि छह प्रकार बतलाए हैं 1 वे स्थानांग (६।४५ ) के अनुसार प्रमाद प्रतिलेखना के प्रकार हैं। इनमें वेदिका के पांच प्रकार हैं दशवैकालिक ५।१।८३ में 'हत्थग' (हस्तक) शब्द आया है। वह भी शरीर का प्रमार्जन करने के लिए काम में आने वाला वस्त्र खंड है। हस्तक, मुखवस्त्रिका और मुखान्तक -ये एकार्थक हैं। १६. ऊकडू-आसन में बैठ, वस्त्र को ऊंचा रखे (उड्डू ... वत्थं) वृत्तिकार ने इसका संबंध शरीर और वस्त्र - दोनों से माना है। शरीर से ऊर्ध्व अर्थात् ऊकडू आसन में स्थित तथा वस्त्र से ऊर्ध्व अर्थात् वस्त्र को तिरछा फैला कर ।" पुतों को ऊंचा रखकर पैरों के बल पर बैठना ऊकडू आसन है। यहां 'वस्त्र' शब्द उत्तरीय आदि वस्त्र के अर्थ में प्रयुक्त है । इसके पहले २३वें श्लोक में जो वस्त्र शब्द है वह पात्र के उपकरण—पटल के अर्थ में प्रयुक्त है। इन सबकी प्रतिलेखना का प्रकार एक जैसा ही है। १७. वस्त्र के दृष्टि से अलक्षित विभाग न करे (अणाणुबंधि) अनुबंध का अर्थ है— निरन्तरता । जो निरंतरता से युक्त होता है वह अनुबंधि कहलाता है। जिस वस्त्र का प्रतिलेखन किया जा रहा है, उस पर निरंतरदृष्टि होनी चाहिए। अनानुबंधी का तात्पर्य है-वस्त्र का कोई भी भाग दृष्टि से अलक्षित न रहे। * १८. (श्लोक २४-२८) २४ वें श्लोक में प्रतिलेखना के तीन अंग बतलाए हैं(१) प्रतिलेखना वस्त्रों को आंखों से देखना । (२) प्रस्फोटना - झटकाना । (३) प्रमार्जना - प्रमार्जना करना, वस्त्र पर जीव-जन्तु हों, उन्हें हाथ में लेकर यतना-पूर्वक एकान्त में रख देना । २५ वें श्लोक में अनर्तित आदि छह प्रकार बतलाए गए हैं । वे स्थानांग ( ६ |४६ ) के अनुसार अप्रमाद - प्रतिलेखना के प्रकार हैं। इनमें 'अमोसली' शब्द मुशल से उत्पन्न है। अनाज कूटते समय मुशल जैसे ऊपर, नीचे और तिरछे में जाता है। वैसे वस्त्र को नहीं ले जाना चाहिए। 'पुरिम' (पूर्व) शब्द का रूढ़ अर्थ है 'वस्त्र के दोनों ओर तीन-तीन विभाग कर उसे १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४० ऊर्ध्व कायतो वस्त्रतश्च तत्र कायत उत्कुटुकत्वेन स्थितत्वात्, वस्त्रतश्च तिर्यक्प्रसारितवस्त्रत्वात् उक्तं हि उक्कुडुतो तिरियं पेहे जह विलित्तो। २. वही, पत्र ५४० वस्त्रं पटलकरूपं जातावेकवचनं पटलकप्रक्रमेऽपि सामान्यवाचकवस्त्रशब्दाभिधानं वर्षाकल्पादिप्रत्युपेक्षणायामप्ययमेव विधिरिति ख्यापनार्थम् । Jain Education International (१) उर्ध्ववेदिका - दोनों जानुओं पर हाथ रखकर प्रतिलेखना करना । (२) अघोवेदिका - दोनों जानुओं के नीचे हाथ रखकर प्रतिलेखना करना । (३) तिर्यग्वेदिका — दोनों जानुओं के बीच में हाथ रखकर प्रतिलेखना करना । (४) उभयवेदिका - दोनों जानुओं को दोनों हाथों के बीच रखकर प्रतिलेखना करना । (५) एक वेदिका - एक जानु को दोनों हाथों के बीच रखकर प्रतिलेखना करना । दृष्टि डालना, छह पूर्व करना-छह बार झटकना और अठारह खोटक करना अठारह बार प्रमार्जन करना इस प्रकार प्रतिलेखना के ( १+६+१८) २५ प्रकार होते हैं। * १९. (श्लोक ३०) प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि जो मुनि प्रतिलेखना में प्रमत्त होता है, वह छह जीव- निकायों का विराधक होता है। वृत्तिकार ने इसकी संगति इस प्रकार बिठाई है— कोई मुनि कुंभकार शाला में ठहरा हुआ है। वह धर्मकथा में संलग्न है । वह स्वयं अध्ययनरत या दूसरों को पढ़ा रहा है और साथ ही साथ प्रतिलेखन भी कर रहा है। उसको अन्यमनस्कता के कारण कुंभकारशाला में पड़ा पानी से भरा घड़ा लुढक जाता है । उस पानी के प्रवाह में मिट्टी, अग्नि आदि के जीवों का तथा बीज, कुन्थु आदि का प्लावन हो सकता है। उससे उन जीवों की विराधना होती है। जहां अग्नि का समारम्भ होता है, वहां वायु अवश्यंभावी है। इस प्रकार छह जीवनिकायों की विराधना होती है। वह प्रमादयुक्त होने के कारण भावनात्मक रूप से भी वह विराधक ही है। प्रतिलेखना का उद्देश्य है-अहिंसा की आराधना। उस समय परस्पर संलाप आदि करना प्रतिलेखना के प्रति प्रमादयुक्त आचरण है। झटकाना ।' ‘खोटक’ का अर्थ है—स्फोटन 'प्रमार्जन' । वे प्रत्येक पूर्व होते हैं। उनमें पहला प्रशस्त है, शेष सभी अप्रशस्त'आट्ठईसवें श्लोक के अनुसार प्रतिलेखना के आठ विकल्प ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४१: अनुबन्धेन नैरन्तर्यलक्षणेन युक्तमनुबन्धि न तथा कोऽर्थः ? अलक्ष्यमाणविभागं यथा न भवति । ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५४० - ५४२ । (ख) स्थानांग, ६।४५ वृत्ति । बृहद्वृत्ति, पत्र ५४२ । ५. ६. वही, पत्र ५४२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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