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________________ महानिर्ग्रन्थीय ३४३ अध्ययन २० :श्लोक ४६-४६ टि०३४-३७ 'कुहेडविज्जा'-मिथ्या आश्चर्य प्रस्तुत करने वाली ३६. दया (दया.......) मन्त्र-तन्त्रात्मक विद्या को 'कुहेटक' विद्या कहा जाता है। दूसरे वृत्ति में दया का मुख्य अर्थ संयम, सत्य आदि तथा शब्दों में इसे 'इन्द्रजाल' कहा जा सकता है। वैकल्पिक अर्थ अहिंसा किया है। ३४. विपर्यास को प्राप्त हो जाता है (विपरियासुवेइ) ३७. अन्तिम समय की आराधना (उत्तमट्ठ) ___ इसका अर्थ है--विपर्यास को प्राप्त हो जाता है--दुःख उत्तमार्थ का अर्थ है—मोक्ष। चार पुरुषार्थों में 'मोक्ष' निवृत्ति के लिए मुनि बनता है, प्रत्युत दुःखी होता है। आयारो उत्तम पुरुषार्थ है, इसलिए इसे उत्तमार्थ कहा गया है। प्रस्तुत (२११५१) में 'विष्परियासमुवेति' का यही अर्थ मिलता है। आगम में दो अन्य स्थानों में भी इस पद का प्रयोग हुआ है शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ विपरीत दृष्टि को प्राप्त होता 'उत्तमढगवेसए' (१९३२) और 'उत्तमट्ठगवेसओ' (२५१९)। दोनों है.....ऐसा किया है। किन्तु दुही पद के पश्चात् 'विपरियासुवेइ' स्थानों पर वत्तिकार ने 'उत्तमट्ट' का अर्थ मोक्ष किया है। पाट है, इसलिए यह तात्विक विपर्यास से सम्बद्ध प्रतीत नहीं प्रस्तुत प्रसंग में वृत्तिकार ने 'उत्तमट्ठ' का अर्थ अंतिम होता। समय की आराधना किया है।' ३५. (उद्देसियं कीयगडं नियाग) देखें-दसवेआलियं ३२ का टिणण। १. बृहद्वृत्ति, पत्र.७६ : कुहेटविद्या-अलीकाश्चयविधायिमन्त्रज्ञानात्मिकाः। २. आचारांगवृत्ति, पत्र १२८ : सुखार्थी.....सुखस्य च विपर्यासो दुःखं तदुपैति, उक्तं च'दुःखद्विट सुखलिप्सुमोहान्यत्वाददृष्टगुणदोषः। यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते।।' ३. बृहदूवृत्ति, पत्र ४७६ : 'विप्परियासुवेइ' ति विपर्यासं तत्त्वादिषु वैपरीत्यम्, उपैति–उपगच्छति।। ४. वही, पत्र ४७६ : दया--संयमः सत्याग्रुपलक्षणमहिंसा था। ५. वही, पत्र ४७६ : उत्तमर्थेऽपि पर्यन्तसमयाराधनारूपेति। For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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