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चरण-विधि
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अध्ययन ३१ : श्लोक २० टि०३८,३६
देखिए-समवाओ, समवाय ३१
(१५) विनयोपगत-मान-रहित होना। आचारांग के सिद्धों के गुण इस प्रकार बतलाए गए हैं।' (१६) धृतिमति-अदीनता।
पांच संस्थान से रहित । संस्थान ये हैं -(१) दीर्घ-हस्व, (१७) संवेग-मोक्ष की अभिलाषा। (२) वृत्त, (३) त्र्यस्त्र, (४) चतुरस्त्र और (५) परिमण्डल।
(१८) प्रणिधि-मायाशल्य से रहित होना। पांच वर्ण से रहित। वर्ण ये हैं—(६) कृष्ण, (७) नील,
(१६) सुविधि-सद्-अनुष्ठान। (८) लोहित, (६) हारिद्र और (१०) शुक्ल ।
(२०) संवर--आश्रव-निरोध । दो गंध से रहित। गंध ये हैं—(११) सुरभि गंध और (१२) दुरभि गंध
(२१) आत्मदोषोपसंहार--अपने दोषों का निरोध । पांच रस से रहित। रस ये हैं---(१३) तिक्त, (१४) कटुक,
(२२) सर्वकाम-विरक्तता–समस्त विषयों से विमुखता। (१५) कषाय, (१६) आम्ल और (१७) मधुर।
(२३) प्रत्याख्यान-मूल गुण विषयक। आठ स्पर्श से रहित। स्पर्श ये हैं—(१८) कर्कश, (१६) मृदु, (२४) प्रत्याख्यान---उत्तर गुण विषयक। (२०) लघु, (२१) गुरु, (२२) शीत, (२३) ऊष्ण, (२४) स्निग्ध, (२५) व्युत्सर्ग कायोत्सर्ग। (२५) सूक्ष।
(२६)अप्रमाद। (२६) अकाय, (२७) अरुह और (२८) असङ्ग । (२७) लवालव-क्षण-क्षण सामाचारी का पालन करना। तीन वेद से रहित। वेद ये हैं--(२६) स्त्री वेद, (३०) पुरुष
(२८) ध्यान-संवर-योग। वेद और (३१) नपुंसक वेद।
(२६) मारणान्तिक उदय-मरण के समय अक्षुब्ध रहना। शान्याचार्य ने दोनों प्रकार मान्य किए हैं।
(३०) संग का त्याग-ज्ञ-प्रतिज्ञा और प्रत्याख्यान-प्रतिज्ञा ३८. बत्तीस योग-संग्रहों...में (जो मेसु)
से त्याग करना। मन, वचन और काया के व्यापार को 'योग' कहते हैं।
(३१) प्रायश्चित्त करना। यहां प्रशस्त योगों का ही ग्रहण किया गया है। योग-संग्रह का
(३२) मारणान्तिक आराधना-शरीर और कषाय को अर्थ है 'प्रशस्त योगों का एकत्रीकरण'। ये बत्तीस हैं.....
क्षीण करने के लिए तपस्या करना। (१) आलोचना-शिष्य द्वारा गुरु के पास अपने दोषों
देखिए-समवाओ, समवाय ३२। को निवेदन करना।
३९. तेतीस आशातनाओं में (तेत्तीसासायणासु) (२) शिष्य द्वारा आलोचित दोषों को प्रकट न करना।
आशातना का अर्थ है--अविनय, अशिष्टता या अभद्र (३) आपत्ति में दृढ़-धर्मिता।
व्यवहार। दैनिक व्यवहारों के आधार पर उसके तेतीस विभाग (४) अनिश्रितोपधान-दूसरों की सहायता के बिना ही।
किए गए हैंतपःकर्म करना।
(१) छोटे साधु का बड़े साधु के आगे चलना। (५) शिक्षा शास्त्रों का पठन-पाठन।
(२) छोटे साधु का बड़े साधु के समश्रेणी में (बराबर) (६) निष्प्रतिकर्मता-शरीर की सार संभाल नहीं करना।
चलना। . (७) अज्ञातता--अपनी तपस्या आदि को गुप्त रखना।
(३) छोटे साधु का बड़े साधु से सट कर चलना। (८) अलोभता।
(४) छोटे साधु का बड़े साधु के आगे खड़ा रहना। (६) तितिक्षा-परीसह आदि पर विजय।
(५) छोटे साधु का बड़े साधु के समश्रेणि में खड़ा (१०) आर्जव-ऋजुभाव।
रहना। (११) शुचि-सत्य और संयम।
(६) छोटे साधु का बड़े साधु से सट कर खड़ा रहना। (१२) सम्यग्-दृष्टि-सम्यग्-दर्शन की शुद्धि ।
(७) छोटे साधु का बड़े साधु के आगे बैठना। (१३) समाधि-चित्त-स्वास्थ्य।
(८) छोटे साधु का बड़े साधु के समश्रेणि में बैठना। (१४) आचारोपगत-माया-रहित होना।
(६) छोटे साधु का बड़े साधु से सट कर बैठना।
आ
आयारो, ५११२७-१३५ : से ण दीहे, ण हस्से, ण बट्टे, ण तसे, ण चउरसे, ण परिमंडले। ण किण्हे, ण णीले, ण लोहिए, ण हालिद्दे, ण सुक्किल्ले। ण सुभिगंधे, ण दूरभिगंधे। ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंविले, ण महुरे।
ण कक्खडे, ण मउए, ण गरुए। ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिद्धे, ण लुक्खे। ण काऊ। ण रुहे। ण संगे।
ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अन्नहा। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१७।
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