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________________ द्रुमपत्रक १९१ अध्ययन १० : श्लोक ३३-३५ टि०२३-२६ आए। वे तीनों का परीक्षण करना चाहते थे। वे उन्हें ध्यान का है। अब थोड़ी देर के लिए रंग में भंग मत करो। प्रशिक्षण दे रहे थे। काफी दिनों के बाद उन्होंने सोचा, परीक्षा ले नट के करतब देखने एक मुनि भी आया हुआ था। वह लूं कि इनकी चेतना बदली या नहीं बदली? तीनों को बुलाकर खड़ा हुआ। सवा लाख की रत्नकंबल उसने नट के हाथ में थमा कहा-आज अमुक रास्ते से तुम्हें गुजरना है। सामने कंटीली दी। राजकुमार उठा और उसने कुंडल नट की झोली में डाल बाड़, कांटे बिखरे हुए हैं। गुरु ने कहा-इसी रास्ते से जाना है, दिए। राजकुमारी ने अपमा हार नटी को पहना दिया। रास्ता बदलना नहीं है। राजा अचम्भे में था। सभा अवाक थी। दो क्षण वातावरण पहला शिष्य बहुत विनीत था। उसमें समर्पण की चेतना मौन रहा। इतना अनुग्रह कैसे? राजा ने मुनि से पूछा। मुनि जाग गई थी। वह गुरु के आदेशानुसार उसी मार्ग से चला। शूलों बोला-मैंने तो इसे रत्नकंबल ही दिया है, इसने मुझे जीवन से उसके पैर लहूलुहान हो गए और वह वेदना से कराहता दिया है। इसके वाक्य से प्रेरणा ले मैं वापस मुनिधर्म में स्थिर हुआ बैठ गया। हो गया हूं। दूसरे शिष्य में चेतना का रूपान्तरण घटित नहीं हुआ था। राजा ने युवराज से पूछा—मुझे बिना पूछे कुंडल दिए, उसने गुरु के आदेश को अव्यावहारिक माना। वह उस मार्ग को इतना साहस कैसे हुआ? युवराज बोला-मैं तो तुला हुआ था छोड़ दूसरे मार्ग से चल पड़ा। तीसरा शिष्य आया। देखा, बड़ा महाराज! आपकी हत्या के लिए। 'रंग में भंग मत करो'-इस कठिन काम है कांटों पर चलना। तत्काल गया, बुहारी लाया वाक्य ने मुझे उबार लिया। राजा ने कन्या से पूछा-रत्नहार और रास्ते में बिखरे सारे कांटे बुहार कर रास्ते को साफ कर इतना सस्ता तो नहीं है। कन्या बोली-आपने मेरी चिंता कब दिया। अब वह निश्चितता से उसी मार्ग से आगे बढ़ा और की? मैं मंत्रीपुत्र के साथ भागने की तैयारी में थी। किन्तु नट गंतव्य पर पहुंच गया। यह है चेतना का रूपान्तरण। तीनों की के वाक्य ने मुझे बचा लिया। दो क्षण के लिए फिर एक बार सभा कसौटी हो गई। में सन्नाटा छा गया। २३. (श्लोक ३३) २५. (श्लोक ३४) जैसे कोई एक आदमी धन कमाने के लिए विदेश गया। अर्णव का शाब्दिक अर्थ है--समुद्र। यहां इसका प्रयोग वहां से बहुत सारा सोना लेकर वापस घर को आ रहा था। लाक्षणिक अर्थ में हुआ है। लाक्षणिक अर्थ के आधार पर इसके कंधों पर बहुत वजन था। शरीर से था वह दुबला-पतला। मार्ग दो अर्थ किए जा सकते हैं--(क) जन्म-मरणरूपी समुद्र और सीधा-सरल आया तब तक वह ठीक चलता रहा और जब (२) उत्कृष्ट स्थितिक कर्ममय समुद्र। कंकरीला, पथरीला मार्ग आया तब वह आदमी घबड़ा गया। भगवान् महावीर गौतम से कह रहे हैं—गौतम ! तुम दोनों उसने धन की गठरी वहीं छोड़ दी और अपने घर चला आया। प्रकार के समुद्र तर गए हो। तुमने भव-संसार का पार पा अब वह सब कुछ गंवा देने के कारण निर्धन हो पछतावा करता लिया है और तुमने उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों का भी क्षय कर है। इसी प्रकार जो श्रमण प्रमादवश विषय-मार्ग में जा डाला है। अब तो तुम्हारे अल्प कर्म शेष रहे हैं। अब तुम इन संयम-धन को गंवा देता है, उसे पछतावा होता है।' अवशिष्ट कर्मों का क्षय करने के लिए त्वरा करो। तुम तीर पर २४. (तिण्णो हु सि.....तीरमागओ) पहुंच चुके हो। एक चरण आगे बढ़ाओ, बस, कृतकृत्य हो जाओगे। इस भाव को स्पष्ट करने वाली एक कथा है २६. क्षपक-श्रेणी पर (अकलेवरसेणिं) . राजधानी में नट-मंडली आई। बहुत विश्रुत, बहुत कलेवर अर्थात् शरीर। मुक्त आत्माओं के कलेवर नहीं कुशल । राजसभा में नाटक आयोजित हुआ। नटी ने अपूर्व होता इसलिए वे अकलेवर कहलाते हैं। उनकी श्रेणी की तरह कौशल दिखलाया। प्रहर पर प्रहर बीत गए पर जनता की पवित्र भावनाओं की श्रेणी होती है, उसे अकलेवर-श्रेणी कहते आंखें अब भी प्यासी थीं। कृपण था राजा और कृपण थी प्रजा। हैं। तात्पर्य की भाषा में इसका अर्थ क्षपक-श्रेणी कर्मों का क्षय नट राजा की दृष्टि देख रहा था पर राजा देख रहा था नटी के करने वाली भाव-श्रेणी है। कलेवर-श्रेणी का दूसरा अर्थ अपूर्व करतब। न राजा पसीजा और न नट ने नाटक थामा। 'सोपान-पंक्ति' हो सकता है। मुक्ति-स्थान तक पहुंचने के लिए आखिर नटी ने थककर गाया-हे मेरे नायक ! पंजर थक गया विशुद्ध भाव-श्रेणी का सहारा लिया जाता है। सोपान-पंक्ति वहां है। अब तुम कोई मधुर तान छेड़ो, मधुर ताल दो। काम नहीं देती। इसलिए उसे 'अकलेवर-श्रेणी' कहा है। नट ने गाया-बहुत लम्बी रात बीत चुकी। भोर होने को अकलेवर का एक अर्थ विदेह अवस्था भी है। १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६३ । मकडेवराः-सिद्धास्तेषां श्रेणिरिव श्रेणिर्ययोत्तरोत्तरशुभपरिणामप्राप्तिरूपया (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३४०। ते सिद्धिपदमारोहन्ति (तां), क्षपकश्रेणिमित्यर्थः । यद्वा कडेवराणि२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६३ : द्रव्यार्णवः समुद्रः, भावार्णवस्तु संसार एव, एकेन्द्रियशरीराणि तन्मयत्वेन तेषां श्रेणिः कडेवर श्रेणिः-वंशादिविरचिता उक्कोसट्ठितियाणि वा कम्माणि। प्रसादादिष्वारोहणहेतुः, तथा च या न सा अकडेवर श्रेणि:-अनन्तरोक्तरूपैव ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २४१ : कलेवर-शरीरम् अविद्यमानं कडेवरमेषा- ताम्। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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