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________________ आमुख इस अध्ययन का नाम नियुक्ति के अनुसार 'प्रमादाप्रमाद" परभव में ही मिलता है। कई मानते थे कि कर्मों का फल है ही और समवायाग के अनुसार 'असंस्कृत' (प्रा० असंखयं) है। नहीं। नियुक्तिकार का नामकरण अध्ययन में वर्णित विषय के आधार भगवान् ने कहा-“किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा पर है और समवायाङ्ग का नामाकरण आदानपद (प्रथमपद) के नहीं मिलता। कर्मों का फल इस जन्म में भी मिलता है और आधार पर है। इसका समर्थन अनुयोगद्वार से भी होता है। पर-जन्म में भी।” (श्लो० ३) 'जीवन असंस्कृत है-उसका संधान नहीं किया जा ४. यह मान्यता थी कि एक व्यक्ति बहुतों के लिए कोई सकता, इसलिए व्यक्ति को प्रमाद नहीं करना चाहिए' यही कर्म करता है तो उसका परिणाम वे सब भुगतते हैं। इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है। जिन व्यक्तियों का जीवन के प्रति भगवान् ने कहा-"संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए यह दृष्टिकोण नहीं है, वे अन्य मिथ्या धारणाओं में फंसकर जो साधारण कर्म करते हैं, उस कर्म के फल-भोग के समय वे मिथ्याभिनिवेश को प्रश्रय देते हैं। सूत्रकार जीवन के प्रति बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते, उसका भाग नहीं बंटाते।” (श्लो० जागरूक रहने की बलवती प्रेरणा देते हुए तथ्यों का प्रतिपादन ४) करते हैं और मिथ्या मान्यताओं का खण्डन करते हैं। वे मिथ्या ५. यह माना जाता था कि साधना के लिए समूह विघ्न मान्यताएं ये हैं-- है। व्यक्ति को अकेले में साधना करनी चाहिए। १. यह माना जाता था कि धर्म बुढ़ापे में करना चाहिए, भगवान् ने कहा-"जो स्वतंत्र वृत्ति का त्याग कर गुरु के पहले नहीं। आश्रयण में साधना करता है, वह मोक्ष पा लेता है।" (श्लो०८) भगवान ने कहा-“धर्म करने के लिए सब काल उपयुक्त ६. लोग कहते थे कि यदि छन्द के निरोध से मुक्ति मिलती हैं, बुढ़ापे में कोई त्राण नहीं है।” (श्लो० १) है तो वह अन्त समय में भी किया जा सकता है। २. भारतीय जीवन की परिपूर्ण कल्पना में चार पुरुषार्थ भगवान ने कहा-“धर्म पीछे करेंगे यह कथन शाश्वतवादी माने गए हैं—काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष । अर्थ को येनकेन- कर सकते हैं। जो अपने आपको अमर मानते हैं, उनका यह प्रकारेण अर्जित करने की प्रेरणा दी जाती थी। लोग धन को त्राण कथन हो सकता है, परन्तु जो जीवन को क्षण-भंगुर मानते हैं, मानते थे। वे भला काल की प्रतीक्षा कैसे करेंगे? वे काल का विश्वास कैसे भगवान् ने कहा--"जो व्यक्ति अनुचित साधनों द्वारा धन करेंगे? धर्म की उपासना के लिए समय का विभाग अवांछनीय का अर्जन करते हैं, वे धन को छोड़कर नरक में जाते हैं। यहां है। व्यक्ति को प्रतिपल अप्रमत्त रहना चाहिए।” (श्लो०६-१०) या परभव में धन किसी का त्राण नहीं बन सकता। धन का इस प्रकार यह अध्ययन जीवन के प्रति एक सही व्यामोह व्यक्ति को सही मार्ग पर जाने नहीं देता।" (श्लो०२,५) दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है और मिथ्या मान्यताओं का निरसन ३. कई लोग यह मानते थे कि किए हुए कर्मों का फल करता है। १. (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १८१ : पंचविहो अपमाओ इहमज्झयणमि अप्पमाओ य। वण्णिएज्ज उ जम्हा तेण पमायप्पमायंति।। २. समवाओ, समवाय ३६ : छत्तीसं उत्तरज्झयणा प० त०—विणयसुर्य.. .असंखयं...। ३. अणुओगदाराई, सूत्र ३२२। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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