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________________ गया है। उत्तरज्झयणाणि ११४ अध्ययन ५ : श्लोक २७-२६ टि० ४२-४६ प्रस्तुत श्लोक में 'उत्तराई' के द्वारा सभी देवलोक विवक्षित ___ महामारी घोड़े पर चढ़ कर जा रही थी। एक व्यक्ति हैं, केवल अनुत्तरविमान ही नहीं। सामने मिला। उसने पूछा कौन हो तुम? उसने कहा-मैं ४२. मोह रहित (विमोहाई): महामारी हूं। तुम कहां जा रही हो? क्यों जा रही हो? चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अन्धकार रहित महामारी बोली---मैं अमुक नगर में हजार व्यक्तियों को मारने और स्त्रियों से रहित।' शान्त्याचार्य के अनुसार वे कामात्मक जा रही हूं। कुछ दिनों बाद वह उसी रास्ते से लौटी। संयोगवश मोह से रहित होते हैं। द्रव्य-मोह (अन्धकार) तथा भाव-मोह वही व्यक्ति पुनः मिल गया। उसने कहा--देवी ! तुम तो गई थी (मिथ्यादर्शन) ये दोनों वहां नहीं होते इसलिए उन्हें विमोह कहा हजार आदमियों को मारने और वहां मरे हैं पांच हजार आदमी। तुमने झूट क्यों कहा? महामारी बोली-भैया ! मैंने ४३. दीप्तिमान् (समिद्धा) झूठ नहीं कहा। मैंने तो हजार व्यक्तियों को ही मारा था। शेष 'समिद्ध' शब्द के संस्कृतरूप दो हो सकते हैं-समिद्ध । चार हजार आदमी मौत के भय से मर गए। उसका मैं क्या और समृद्ध। समिद्ध का अर्थ है-दीप्तिमान् और समृद्ध का करूं? अर्थ है...-वैभवशाली । शान्त्याचार्य ने पहला अर्थ मान्य किया है।' इसी अध्ययन के सोलहवें श्लोक में 'तओ से मरणंतंमि, चूर्णिकार तथा नेमिचन्द्र ने दूसरा अर्थ मान्य किया है।" बाले संतस्सई भया'...ऐसा उल्लेख है। इसका तात्पर्य है कि ४४. अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी कान्ति वाले बाल-अज्ञानी व्यक्ति अपने जीवनकाल में धर्म को छोड़कर अधर्म से जीवन-यापन करता है। वह मरणकाल में (अहुणोववन्नसंकासा) परलोक-गमन-नरकगमन के भय से संत्रस्त हो जाता है। वह चूर्णिकार ने इसका अर्थ-अभिनव उत्पन्न की तरह सोचता है मैंने नरक-प्रायोग्य कर्म किए हैं और मुझे उनको किया है। टीकाकारों ने इसका अर्थ 'प्रथम उत्पन्न देवता के । तुल्य' किया है। इसका तात्पर्य है कि उनमें औदारिक शरीरगत प्रस्तुत श्लोक में 'न संतसन्ति मरणन्ते'.....पद के अवस्थाएं नहीं होतीं। वे न बालक होते हैं और न बूढ़े, सदा पूसपा तात्पर्यार्थ में बताया है कि शीलवान् और संयमी मुनि मरणकाल ना एक से रहते हैं। उनका रूप-रंग और लावण्य जैसा उत्पत्ति के । में भी संत्रस्त नहीं होता। वह जानता है कि उसकी सुगति समय होता है वैसा ही अन्तकाल में होता है।६।। होगी, क्योंकि उसने धर्म के प्रशस्त मार्ग का अनुसरण किया है। ४५. जो उपशान्त होते हैं (जे संति परिनिब्बुडा) पानिप्युठा) वह संलेखना कर, अनशनपूर्वक मृत्यु का स्वेच्छा से वरण इसमें 'सन्ति' क्रियापद है। फिर भी व्याख्याकारों ने इसका करता है। मूल अर्थ इस प्रकार किया है जो मुनि शान्तिपरिनिर्वृत होता इस शताब्दी के महान् वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने है अर्थात् शान्ति या उपशम से शीतीभूत, कषाय रहित, कषायरूपी __अपना अन्त निकट जानकर कहा था-मुझे जितना जीना था, अग्नि को बुझाने वाला होता है। उतना जी लिया, अब जबरदस्ती मैं जीवन को लंबाना नहीं शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप में 'सन्ति' को क्रियापद चाहता। मानकर इसका अर्थ-विद्यन्ते किया है। यह भावना भी 'न संतसंति मरणंते' की ही द्योतक है। ४६. (श्लोक २९) नेमिचन्द ने यहां एक सुन्दर पद्य उद्धृत किया हैसभी प्रकार के भयों में मरण का भय अत्यंत कष्टप्रद 'सुगहियतवपव्वयणा, विसुद्धसम्मत्तणाणचरित्ता। होता है। कभी-कभी ऐसे अवसर भी आते हैं कि वास्तविक मृत्यु मरणं उस्सवभूयं मण्णंति समाहियपण्णओ।' से मरने वाले लोगों से भी अधिक लोग मृत्यु के भय से मर अर्थात् जिनके पास तप रूपी पाथेय है, जिनकी श्रद्धा, जाते हैं। ज्ञान और चारित्र विशुद्ध है, वे समाहित आत्मा वाले मुनि मरण उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४०: 'विमोहाई' विमोहानीति निस्तमासीत्यर्थ, तमो हि बाह्यमाभ्यन्तरं च, बाह्यं तावदन्येष्वपि देवलोकेषु तमो नास्ति, किं पुनरनुत्तरविमानेषु? अभ्यंतरतममधिकृत्यापदिश्यते सर्व एव हि सम्यग्दृष्टयः, अथवा मोहयंति पुरुष मोहसंज्ञातः स्त्रियः, ताः तत्र न। २. बृहद्वृत्ति, पत्र २५२ : विमोहा इवाल्पवेदादिमोहनीयोदयतया विमोहाः, अथवा मोहो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतोऽन्धकारो भावतश्च मिथ्यादर्शनादिः, स द्विविधोऽपि सततरत्नद्योतितत्वेन सम्यग्दर्शनस्यैव च तत्र सम्भवेन विगतो येषु ते विमोहाः। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २५२ : समिद्धा-अतिदीप्ताः। ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४० : समृद्धाः सर्वसंपदुपपेताः । (ख) सुखबोधा, पत्र १०८ । ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४० : 'अहुणोववन्नसंकासा' अभिनवोपपन्नस्य देहस्य सर्वस्यैवाभ्यधिका द्युतिर्भवति अनुत्तरेष्वपि। ६. (क) बृहवृत्ति, पत्र २५२ : अधुनोपपन्नसंकाशाः प्रथमोत्पन्नदेवतुल्याः, अनुत्तरेषु हि वर्णद्युत्यादि यावदायुस्तुल्यमेव भवति। (ख) सुखबोथा, पत्र १०८।। ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १४१। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २५३ । (ग) सुखबोधा, पत्र १०८। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र २५३। ६. सुखबोधा, पत्र १०८। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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