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________________ आमुख चूर्णि के अनुसार इस अध्ययन का नाम 'विनयसूत्र" १. अभ्यासवृत्तिता-समीप रहना। और नियुक्ति तथा बृहद्वृत्ति के अनुसार 'विनयश्रुत' है। २. परछन्दानुवृत्तिता-दूसरे के अभिप्राय का अनुवर्तन समवायांग में भी इस अध्ययन का नाम विनयश्रुत' है। करना। 'श्रुत' और 'सूत्र'-दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। इस अध्ययन में ३. कार्यहेतु-कार्य की सिद्धि के लिए अनुकूल वर्तन करना। विनय की श्रुति या सूत्रण है। ४. कृतप्रतिक्रिया-कृत उपकार के प्रति अनुकूल वर्तन भगवान् महावीर की साधना-पद्धति का एक अंग करना। 'तपोयोग' है। उसके बारह प्रकार हैं। उनमें आठवां प्रकार ५.. आर्तगवेषणा–आर्त की गवेषणा करना। 'विनय' है। उसके सात रूप प्राप्त होते हैं : ६. देशकालज्ञता-देश और काल को समझना। १. ज्ञानविनय-ज्ञान का अनुवर्तन। ७. सर्वार्थ-अप्रतिलोमता-सब प्रकार के प्रयोजनों की २. दर्शनविनय-दर्शन का अनुवर्तन। सिद्धि के लिए अनुकूल वर्तन करना। ३. चारित्रविनय--चारित्र का अनुवर्तन। दूसरे श्लोक में दी हुई विनीत की परिभाषा से तीन ४. मनविनय-मन का अनुवर्तन। विभाग-परछन्दानुवृत्तिता, अभ्यासवृत्तिता, देशकालज्ञता-क्रमशः ५. वचन विनय-वचन का अनुवर्तन। आज्ञानिर्देशकर, उपपातकारक और इंगिताकार-सम्पन्न के रूप ६. कायविनय-काया का अनुवर्तन। में प्रयुक्त हुए हैं। ७. लोकोपचारविनय-अनुशासन, शुश्रूषा और शिष्टाचार दसवें श्लोक में 'मनविनय', 'वचनविनय' और 'ज्ञानविनय' पालन। का संक्षेप में बहुत सुन्दर निर्देश किया गया है। बृहद्वृत्ति में 'विनय' के पांच रूप प्राप्त होते है। इस प्रकार इस अध्ययन में विनय के सभी रूपों का १. लोकोपचारविनय। सम्यक् संकलन हुआ है। प्राचीनकाल में विनय का बहुत मूल्य २. अर्थविनय- अर्थ के लिए अनुवर्तन करना। रहा है। तेईसवें श्लोक में बताया गया है कि आचार्य विनीत को ३. कामविनय-काम के लिए अनुवर्तन करना। विद्या देते हैं। अविनीत विद्या का अधिकारी नहीं माना जाता। ४. भयविनय-भय के लिए अनुवर्तन करना। इस अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि गुरु शिष्य पर कठोर ५. मोक्षविनय-मोक्ष के लिए अनुवर्तन करना। इस और मृदु-दोनों प्रकार का अनुशासन करते थे। (श्लोक २७)। विनय के पांच प्रकार किए गए हैं-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, समय की नियमितता भी विनय और अनुशासन की एक अंग चारित्रविनय, तपविनय और औपचारिकविनय। थी: इन दोनों वर्गीकरणों के आधार पर विनय के पांच अर्थ कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे। प्राप्त होते हैं-अनुवर्तन, प्रवर्तन, अनुशासन, शुश्रूषा और अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे।।१।४१।। शिष्टाचार-परिपालन। इस अध्ययन में स्वाध्याय और अध्ययन दोनों का प्रस्तुत अध्ययन में इन सभी प्रकारों का प्रतिपादन सम्मिलित उल्लेख मिलता है। आचार्य रामसेन ने लिखा है : हुआ है। स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत्। दूसरे श्लोक में 'विनित' की परिभाषा लोकोपचारविनय के ध्यानस्वाध्यायसम्पत्या, परमात्मा प्रकाशते ।। आधार पर की गई है। लोकोपचारविनय के सात विभाग हैं - स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान और ध्यान के पश्चात् १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट : प्रथममध्ययन विनयसुत्तमिति, विनयो यस्मिन् सूत्रे वर्ण्यते तदिदं विनयसूत्रम्। २. (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २८ : तत्थज्झयणं पढम विणयसुयं..। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १५ : विनयश्रुतमिति द्विपदं नाम। ३. समवाओ, समवाय ३६ : छत्तीसं उत्तरायणा पं. तं. विणयसुय... ४. उत्तरज्झयणाणि, ३०/८,३०। ५. ओववाइय, सूत्र ४० : से किं तं विणए? विणए सत्तविहे पण्णते, तं जहा णाणविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए वइविणए कायविणए लोगोवयारविणए। ६. बृहदवृत्ति, पत्र १६ : लोकोययारविणओ अत्थनिमित्तं च कामहेउं च। भयविणयमोक्खविणओ खलु पंचहा णेओ।। ७. वही, पत्र १६ : सणणाणचरिते तवे य तह ओवयारिए चेव। एसो य मोक्खविणओ पंचविहो होइ णायव्यो।। . ओववाइयं, सूत्र ४० : से किं तं लोगोवयारविणए? लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-अब्भासवत्तियं परच्छंदाणुबत्तियं कज्जहेउ कयपडिकिरिया अत्तगवेसणया देसकालपणुया सव्वत्थेसु अप्पडिलोमया। . तत्त्वानुशासन, ८१। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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