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________________ उत्तरायणाणि स्वाध्याय- - इस प्रकार स्वाध्याय और ध्यान की पुनरावृत्ति से परमात्मस्वरूप उपलब्ध होता है। 1 यह परम्परा बहुत पुरानी है। इसका संकेत दसवें श्लोक में मिलता है -- कालेण य अहिहिज्जत्ता, तओ झाएज्ज एगगो । विनय के व्यापक स्वरूप को सामने रखकर ही यह कहा गया था - ' विनय जिन शासन का मूल है। जो विनयरहित है, उसे धर्म और तप कहां से प्राप्त होगा?" आचार्य वट्टकेर ने विनय का उत्कर्ष इस भाषा में प्रस्तुत किया है— विनयविहीन व्यक्ति की सारी शिक्षा व्यर्थ है । शिक्षा का फल विनय है । यह नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति शिक्षित है और विनीत नहीं है। उनकी भाषा में शिक्षा का फल विनय और विनय का फल शेष समग्र कल्याण है। विनय मानसिक दासता नहीं है, किन्तु वह आत्मिक और व्यावहारिक विशेषताओं की अभिव्यंजना है। उसकी पृष्ठभूमि में इतने गुण समाहित रहते हैं : १. आत्मशोधि - आत्मा का परिशोधन I १. उपदेशमाला, ३४१ : विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तओ ।। २. मूलाचार, ५।२११ विणएण विप्पहीणस्स, हवदि सिक्खा सव्वा णिरत्थिया । विणओ सिक्खाए फलं, विणयफलं सव्व कल्लाणं ।।। Jain Education International २. निर्द्वन्द्व ३. ऋजुता ४. मृदुता - निश्छलता और निरभिमानता । ५. लाघव - अनासक्ति । ६. भक्ति - भक्ति । अध्ययन १ : आमुख - - कलह आदि द्वन्द्वों की प्रस्तुति का अभाव। सरलता । ७. प्रह्लादकरण – प्रसन्नता । विनय के व्यावहारिक फल हैं-कीर्ति और मैत्री । विनय करने वाला अपने अभिमान का निरसन, गुरुजनों का बहुमान, तीर्थंकर की आज्ञा का पालन और गुणों का अनुमोदन करता है । * सूत्रकार ने विनीत को वह स्थान दिया है, जो अनायास लभ्य नहीं है। सूत्र की परिभाषा है - 'हवइ किच्चाणं सरणं, भूयाणं जगई जहा' - जिस प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए आधार होती है, उसी प्रकार विनीत शिष्य धर्माचरण करने वालों के लिए आधार होता है। ३. वही, ५।२१३ : ४. वही, ५। २१४ : For Private & Personal Use Only आयारजीदकप्पगुणदीवणा, अत्तसोधि णिज्जंजा । अज्जव मद्दव - लाहव भत्ती पल्हादकरणं च । कित्ती मित्ती माणस्स भंजणं गुररुजणे य बहुमाणं । तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा ।। www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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