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________________ क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय १२३ अध्ययन ६ : श्लोक २ टि० ५, ६ 'स्त्री' आदि का संबंध है। वे एकेन्द्रिय आदि जातियों के मार्ग की गवेषणा का कोई अर्थ नहीं होता। वे चार हेतु हैंहोते हैं, अतः उन्हें जातिपथ कहा गया है। 'पाशजातिपथ' अर्थात् (१) किसी दूसरे के विकास के आधार पर सत्य मान लेना (२) एकेन्द्रिय आदि जातियों में ले जाने वाले स्त्री आदि के संबंध।' भय से (३) लोक-रंजन के लिए और (४) दूसरों के दबाव से।' हमने 'पास' और 'जाइपह' को असमस्त मानकर अनुवाद इसलिए कहा गया है.-सर्वदा सर्वत्र आत्मना-स्वयं किया है। आचार्य नेमिचन्द्र ने स्त्री आदि के संबंध के विषय में अपनी स्वतंत्र भावना से सत्य की मार्गणा करे। एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है सच्च--चूर्णिकार ने सत्य का अर्थ संयम किया है। भार्या या निगड दत्त्वा, न सन्तुष्टः प्रजापतिः। वृत्तिकार ने सत् का अर्थ जीव और उसके लिए जो हितकर भूयोऽप्यपत्यदानेन, ददाति गलइखलाम् ॥ होता है, उसे सत्य कहा है। यथार्थ-ज्ञान और संयम जीव के प्रजापति ने मनुष्य को भार्यारूपी सांकल देकर भी संतोष लिए हितकर होते हैं। इसलिए ये सत्य कहलाते हैं। नहीं किया। उसने उसी मनुष्य को अनेक सन्तान देकर उसके चूर्णि और वृत्तिकार ने सत्य का जो अर्थ किया है वह गले में एक सांकल और डाल दी। आचारपरक है। सत्य का सम्बन्ध केवल आचार से ही नहीं है, ५. स्वयं सत्य की गवेषणा करे (अप्पणा सच्चमेसेज्जा) इसलिए व्यापक संदर्भ में सत्य के तीन अर्थ किए जा सकते इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति स्वयं सत्य की खोज करे। है (१) अस्तित्व' (२) संयम (३) ऋजुता। जैन दर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है। वह मानता है कि व्यक्ति-व्यक्ति चूर्णिकार ने नामोल्लेखपूर्वक नागार्जुनीय वाचना का को सत्य की खोज करनी चाहिए। दूसरों के द्वारा खोजा गया पाठांतर 'अत्तट्ठा सच्चमेसेज्जा' दिया। शान्त्याचार्य ने यह पाठांतर सत्य दूसरे के लिए प्रेरक बन सकता है, निमित्त कारण बन बिना किसी विशेष नाम के निर्दिष्ट किया है। इन दोनों का सकता है, पर उपादान कारण नहीं हो सकता। व्यक्ति निरन्तर मानना है कि इस पाठांतर में 'अत्तट्ठा' शब्द विशेष महत्त्व का सत्य की खोज करे, रुके नहीं। सत्य की खोज का द्वार बन्द न है। सत्य की खोज का प्रमुख उद्देश्य है 'स्व' । वह पर के लिए नहीं होती। वैदिक मानते हैं कि वेद ही प्रमाण हैं, परुष प्रमाण हो इस श्लोक का सार यह है कि सत्य की खोज स्वयं के नहीं सकता, क्योंकि वह सत्य को साक्षात देख नहीं सकता- लिए स्वयं करो। सत्य की खोज वही व्यक्ति कर सकता है जो 'तस्मादतीन्द्रियार्थानां साक्षाद द्रष्टरभावतः। नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो बंधनों की समीक्षा में पंडित है, हित-अहित की विवेक-चेतना यथार्थत्वविनिश्चयः।' जैन परम्परा मानती है-ग्रन्थ प्रमाण नहीं का धनी हो। सत्य को वही पा सकता है जो स्वतंत्र चेतना से होता, प्रमाण होता है पुरुष। सर्वज्ञ थे, हैं और होंगे। सर्वज्ञता उसका शाथ करता ह। सत्य-शाध का नवनात ह–विश् की नास्ति नहीं मानी जा सकती। सर्वभूतमैत्री। सत्य की खोज के विषय में वैज्ञानिक अवधारणा भी यही ६. आचरण कर (कप्पए) है। दूसरे वैज्ञानिकों ने जो खोजा है, उससे आगे बढ़ो और सत्य चूर्णिकार ने 'कल्प' शब्द के छह अर्थ निर्दिष्ट किए हैं:के एक नए पर्याय को अभिव्यक्ति दो। खोज खोज है। उसमें १. सामर्थ्य आठवें मास में वृत्ति या जीविका में समर्थ निर्माणात्मक तत्त्व भी प्राप्त हो सकते हैं और विध्वंसात्मक तत्त्व होना। भी मिल सकते हैं। सत्य की खोज में भी यही लागू होता है। पर २. वर्णन-विस्तार से वर्णन करने वाला सूत्र-कल्पसूत्र। जो व्यक्ति 'मित्ति मे सव्वभूएसु'–विश्व-मैत्री का सूत्र लेकर ३. छेदन-चार अंगुलमात्र केशों को छोड़कर आगे के चलता है, वह खोजी कहीं विमूढ़ नहीं होता। वह विध्वंस को भी केशों की कप्पति—काटना। निर्माण में बदल देता है। ४. करण करना। चूर्णिकार के अनुसार चार हेतुओं से की जाने वाली सत्य ५. औपम्य-चांद और सूर्य जैसे साधु । १. बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ : पाशा-अत्यन्तपारवश्यहेतवः, कलत्रादिसम्बन्धास्त एव तीव्रमोहोदयादिहेतुतया जातीनाम्-एकेन्द्रियादिजातीनां पन्थान: तत्प्रापकत्वान् मार्गाः पाशजातिपथाः तान्। २. सुखबोधा वृत्ति, पत्र ११२।। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४९ : मा भूत् कस्यचित् परप्रत्ययात् सत्यग्रहणं, तथा परो भयात् लोकरंजनार्थ पराभियोगाद् वा। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४६ : सच्चो संजमो...। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ : सद्भ्यो-जीवादिभ्यो हितः-सम्यग रक्षण प्ररूपणादिभिः सत्यः-संयमः सदागमो वा। ६. तत्त्वार्थ ५३० : उत्पाद-व्यय-धीव्ययुक्तं सत्। ७. ठाणं ४११०२ : चउविहे सच्चे पण्णते-काउजुयया, भासुज्जुयया भावुज्जुयया, अविसंवायणाजोगे। ८. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०१४६ : नागार्जुनीयानां अत्तट्टा सच्चमेसेज्जा।' (ख) बृहवृत्ति, पत्र २६४। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४६, १५०: कल्पनाशब्दोप्यनेकार्थः, तद्यथा-- सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदणे करणे तथा। औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्द विदुर्बुधाः ।। सामर्थ्य अट्ठममासे वित्तीकप्पो भवति, वर्णने विस्तरतः सूत्रं कल्पं, छेदने चतुरंगुलवज्जे अग्गकेसे कप्पति, करणे 'न वृत्तिं चिन्तयेत् प्रातः, धर्ममेवानुचिन्तयेत् । जन्मप्रभृतिभूतानां, वृत्तिरायश्च कल्पितम्।। औपम्ये यथा चन्द्राऽदित्यकल्पाः साधवः, अधिवासे जहा सोहम्मकप्पवासी देवो। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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