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________________ उत्तरज्झयणाणि १२४ अध्ययन ६ : श्लोक ४-६ टि० ७-१३ ६. अधिवास—सौधकर्मकल्पवासी देव। १२. जीवन की आशंसा (अज्झत्थं) प्रस्तुत प्रसंग में 'कल्प' शब्द का प्रयोग 'करण'—करने अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है--आत्मा में होने वाला। के अर्थ में है। प्राणी में कुछ मौलिक मनोवृत्तियां या संज्ञाएं होती हैं। वे सबमें ७. सम्यग् दर्शन वाला पुरुष (समियदंसणे) समान रूप से मिलती हैं। जीवन की आशंसा या इच्छा एक जिसका मिथ्यादर्शन शमित हो गया हो उसे शमितदर्शन मौलिक मनोवृत्ति है। यहां 'अध्यात्म' शब्द के द्वारा वही विवक्षित अथवा जिसे दर्शन समित—प्राप्त हुआ हो उसे समितदर्शन कहा है। वह व्यापक है, इसलिए उसे 'सव्वओ सव्वं' (सर्वतः सर्व) जाता है। इन दोनों का अर्थ है--सम्यग्दृष्टि संपन्न व्यक्ति। कहा गया है। चूर्णिकार ने वैकल्पिक रूप से इसे संबोधन भी माना है। 'अज्झत्थ' के स्थान पर 'अब्भत्थ' शब्द का प्रयोग भी ८. अपनी प्रेक्षा से (सपेहाए) मिलता है। दोनों समानार्थक हैं। चूर्णि में इसका अर्थ 'सम्यक्बुद्धि' से है। शान्त्याचार्य ने १३. सब प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है (पियायए) इसके दो अर्थ किए हैं—सम्यक्-बुद्धि से अथवा अपनी बुद्धि चूर्णि और वृत्तियों में इसकी व्याख्या प्रियात्मक या प्रियदय से। नेमिचन्द्र ने केवल अपनी बुद्धि से' किया है। यही शब्द के रूप में की गई है।२ सरपेन्टियर ने इस शब्द की मीमांसा ७।१६ में आया है। वहां इसका अर्थ 'सम्यक्-आलोचना करके' करते हए लिखा है कि पाली साहित्य में 'पियायति' धातु का किया गया है। अपनी बुद्धि से—यह अर्थ अधिक उपयुक्त है। प्रयोग मिलता है, जिसका अर्थ है चाहना, उपासना करना, ९. देखे (पासे) सत्कार करना आदि और संभव है यही क्रिया जैन-महाराष्ट्री में चूर्णि में इसका अर्थ 'पाश'—बंधन है। वृत्तिकार ने इसे भी आई हो। अतः इस धातु के 'पियायइ', 'पियाएइ' रूप भी क्रियापद मानकर इसका अर्थ--देखे, अवधारण करे-किया सहज गम्य हो जाता है। इस रूप को मानने पर ही प्रथम दो है। यही अर्थ प्रासंगिक लगता है। चरणों का अर्थ सहज सुगम हो जाता है। १०. गृद्धि और स्नेह (गेहिं सिणेह) यदि हम टीकाकारों का अनुसरण करते हैं तो हमें 'दिस्स' _ गृद्धि का अर्थ है-आसक्ति। वह पशु, धन, धान्य आदि शब्द को दोनों ओर जोड़ना पड़ता है और यदि हम 'पियायए' के प्रति होती है। स्नेह परिवार, मित्र आदि के प्रति होता है।० को धातु मान लेते हैं तो ऐसा नहीं करना पड़ता और अर्थ में गृद्धि किसी मनुष्य के प्रति नहीं हो सकती। यहां गृद्धि भी विपर्यास नहीं होता। इसके अनुसार 'पाणे पियायए' का अर्थ और स्नेह-दोनों शब्द प्रयुक्त हैं। इसलिए उनमें यह भेदरेखा होगा-प्राणियों के साथ मैत्री करे। की गई है। किन्तु आचारांग के-सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, ११. दास और कर्मकरों का समूह (दासपोरुसं) दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविणो, जीविउकामा, सव्वेसिं _ इसमें दो शब्द हैं-दास और पौरुस । दास का अर्थ है- जीवियं पियं (२।६३, ६४) के संदर्भ में इस श्लोक को पढ़ते हैं जो घर की दासी से उत्पन्न हैं अथवा क्रीत हैं, वे दास कहलाते तो 'पियायए' का अर्थ प्रियायुष् (प्रियायुषः) संभव लगता है और हैं। 'पौरुष' का अर्थ है-पुरुषों का समूह अर्थात् कर्मकरों का अर्थसंगति की दृष्टि से भी यह उचित है। 'पियायए'-यहां समूह। पियाउए पाठ की परावृत्ति हुई है—ऐसा लगता है। शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप से 'दासपोरुस' को समस्त आचारांग वृत्ति में 'सव्वे पाणा पियाउया' का पाठान्तर पंद मानकर इसका अर्थ-दास पुरुषों का समूह किया है।" है-'सव्वे पाणा पियायया'। शीलांकसूरि ने 'पियायया' का विस्तार के लिए देखें-३१६ का टिप्पण। । अर्थ-जिन्हें अपनी आत्मा प्रिय हो वे प्राणी किया है। पर १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १५० : अत्र करण कल्पः शब्दः । २. बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ : शमितं दर्शनं प्रस्तावात् मिथ्यात्वात्मकं येन स तथोक्तः, यदि वा सम्यक् इतं-गतं जीवादिपदार्थेषु दर्शनं दृष्टिरस्येति समितदर्शनः । कोऽर्थः ? सम्यग्दृष्टिः। . ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १५१: .....आमन्त्रणे वा। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १५० : सम्यकप्रेक्षया सपेहाए। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ : 'सपेहाए' त्ति प्राकृतत्वात् संप्रेक्षया-सम्यग्बुढ्या स्वप्रेक्षया वा। ६. सुखबोधा, पत्र ११२ : स्वप्रेक्षया स्वबुद्धया। ७. सुखबोधा, पत्र १२१ : 'सपेहाए' त्ति सम्प्रेक्ष्य-सम्यगालोच्य। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १५० : पाश्यतेऽनेनेति पाशः। ६. बृहवृत्ति, पत्र २६४ : पासे त्ति पश्येदवधारयेत्। १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५१ : गृद्धिः द्रव्यगोमहिष्यजाविकाधनधान्यादिषु, स्नेहस्तु बान्धवेषु। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ : यद् वा दासपोरुसं ति दासपुरुषाणां समूहो दासपौरुषं। १२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ १५१ : "पियायए' प्रिय आत्मा येषां ते प्रियात्मानः। (ख) बृहवृत्ति, पत्र २६५ : 'पयादए' त्ति आत्मवत् सुखप्रियत्वेन प्रिया दया-रक्षणं येषां तान् प्रियदयान्, प्रियआत्मा येषां तान् प्रियात्मकान् वा। (ग) सुखबोधा, पत्र ११२ । १३. उत्तराध्ययन, पृ० ३०३। १४. आयारो २६३, वृत्ति पत्र, ११०, १११ : पाठान्तर वा 'सव्वेपाणा पियायया', आयतः--आत्माऽनाद्यनन्तत्वात् स प्रिये येषां ते तथा सर्वेपि प्राणिनः प्रियात्मानः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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