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________________ उत्तरायणाणि महाभद्र आदि तपोनुष्ठान । उपधान शब्द जैन परम्परा का पारिभाषिक शब्द है । प्रत्येक आगम का अध्ययन प्रारंभ करने से पूर्व साधक को कुछ निश्चित तपस्याएं करनी होती हैं। वे तपस्याएं उपधान कहलाती हैं। इसमें आचाम्ल तप की प्रधानता रहती है ।' आगमों के अध्ययन काल में आचाम्ल (आयंबिल) आदि तपस्या करने की परम्परा रही है। प्रत्येक आगम के लिए तपस्या के दिन निश्चित किए हुए हैं। विशेष जानकारी के लिए देखेंआचार दिनकर विभाग १; योगोद्वहनविधि, पत्र ८६ - ११० । प्रस्तुत आगम के ११1१४ में उपधान करने वाले के लिए “उवहाणवं” ( उपधानवान् ) का प्रयोग मिलता है। ७८. प्रतिमा को (पडिमं) वृत्तिकार ने अज्ञान के भावपक्ष और अभावपक्ष के आधार पर इनकी व्याख्या प्रस्तुत की है । " राजवार्तिक में अज्ञान परीषह के दो अर्थ किए गए हैं । पहला अर्थ है - तू अज्ञानी है, इत्यादि आपेक्षात्मक वचनों को सुनना। दूसरा अर्थ है - प्रस्तुत श्लोकवर्ती निरूपण । वृत्तिकार ने अज्ञान के सद्भाव को समझाने के लिए यह उदाहरण प्रस्तुत किया है दो भाई एक साथ प्रव्रजित हुए। एक बहुश्रुत था और प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग है। चूर्णि और बृहद्वृत्ति में दूसरा अल्पश्रुत। बहुश्रुत मुनि के पास अपने शिष्य प्रव्रजित हुए इसका अर्थ मासिकी आदि भिक्षु प्रतिमा किया है। और वह उन्हें अध्यापन कराने लगा। सभी शिष्य अध्यापन से संतुष्ट थे । अध्ययन-काल में उनमें जिज्ञासाएं उभरतीं और वे उनका समाधान बहुश्रुत मुनि के पास पा लेते। दिन भर मुनि को विश्राम नहीं मिलता। रात का समय भी शिष्यों को पढ़ाने और प्रश्नों का समाधान देने में बीत जाता । नींद लेने का समय भी कम रहता। किन्तु यह सांकेतिक है। प्रस्तुत प्रतिमा शब्द स्थान- मुद्रा का सूचक है। बैठी या खड़ी प्रतिमा की तरह स्थिरता से बैठने या खड़े रहने को प्रतिमा कहा गया है। प्रतिमाओं में उपवास आदि की अपेक्षा कायोत्सर्ग व आसनों की प्रधानता होती है। इसलिए उनका नाम उपवास प्रधान न होकर कायोत्सर्ग प्रधान है। वे बारह हैं। विशेष जानकारी के लिए देखें --- दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ७ । ७९. छद्म (छउमं) जो आच्छादित करता है, वह छद्म है। आत्मगुणों को आच्छादित करने वाले चार कर्म हैं ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्म । इनकी विद्यमानता में छद्मस्थता बनी रहती है। ५८ अध्ययन २ : श्लोक ४३, टि० ७८-८० प्रज्ञा परीषह है। अज्ञान परीषह का सम्बन्ध अवधिज्ञान आदि अतीन्द्रिय ज्ञान से है। चूर्णिकार ने इन श्लोकों की व्याख्या ज्ञान परीषह इन दोनों अपेक्षाओं से की है। प्रस्तुत श्लोक के प्रसंग में यहां केवल ज्ञानवरणीय कर्म गृहीत हैं।* ८०. (श्लोक ४२ - ४३ ) सत्य का साक्षात्कार न होने के कारण हीन भावना से ग्रस्त होना अज्ञान परीषह है। प्रज्ञा परीषह और अज्ञान परीषह में क्या अन्तर है - यह प्रश्न सहज ही उभरता है। राजवार्तिक में इसका समाधान इस प्रकार मिलता है- प्रज्ञा परीषह का सम्बन्ध श्रुतज्ञान से है। सामान्य विषय की जानकारी न होना 9. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १२८ : तपो - भद्रमहाभद्रादि, उपधानम् - आगमोपचाररूपमाचाम्लादि । - (ख) वही, ३४७: उपधानम् – अङ्गानङ्गाध्ययनादी यथायोगमाचाम्लादि तपो विशेषः । २. मूलाराधना दर्पण, ८ २०७१ पाडिमा कायोत्सर्गः । ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८५ पडिमा नाम मासिकादिता । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १२८ । बृहद्वृत्ति, पत्र १२८ छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणादिकर्म । ४. ५. तत्त्वार्थ, राजवार्तिक ६।१७, पृ. ६१५ प्रज्ञाऽज्ञाने अपि विरुद्धे तयोरन्तराभावे ऽष्टादशसंख्याप्रसंग इति, तन्न, किं कारणम् ? अपेक्षातो Jain Education International अल्पश्रुत मुनि सुखपूर्वक रहता और खूब नींद लेता । न कोई दूसरा मुनि उसके पास जाता और न कुछ पूछता। एक बार बहुश्रुत मुनि ने सोचा — ओह! धन्य है यह साथी मुनि जो नींद तो सुख से लेता है। मैं मंदभाग्य हूं कि मुझे सोने में भी अड़चनें आती हैं। इसका मुख्य कारण है मेरा ज्ञानी होना । ज्ञान की ऐसी उपासना से क्या लेना-देना । इस चिन्तन से उसके ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध हुआ। उसने इस असद् चिन्तन का प्रायश्चित्त नहीं किया। वहां से मरकर वह देव बना। वहां का आयुष्य पूरा कर वह आभीर कुल में जन्मा । युवा होने पर किसी एक निमित्त को पाकर वह विरक्त हुआ और एक आचार्य के पास दीक्षित हो गया। गुरु ने उसे उत्तराध्ययन के प्रथम तीन अध्ययन सिखाए। जब उसे चौथे अध्ययन 'असंखयं' की वाचना दी गई, उस समय उसका पूर्व बन्धा हुआ ज्ञानावरण कर्म विपाक में आया। उसने बेला किया, आचाम्ल प्रारंभ किए, पर उस ६. ७. ८. विरुद्धाभावात् । श्रुतज्ञानापेक्षया प्रज्ञाप्रकर्षे सति अवध्याद्यभावापेक्षया अज्ञानोपपत्तेः । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ८४। बृहद्वृत्ति पत्र १२८ । तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृ. ६१२ अज्ञोऽयं न किञ्चिदपि वेति पशुसम इत्येवमाद्याधिक्षेपवचनं सहमानस्याऽध्ययनार्थग्रहणपराभिभवादिष्वसक्तबुद्धेश्चिरप्रव्रजितस्य विविधतपो विशेषभाराक्रान्तमूर्तेः सकलासामर्थ्यप्रमत्तस्य विनिवृत्तनिष्टमनोवाक्कायचेष्टस्याद्यपि मे ज्ञानातिशयो नोत्पद्यत इत्यनभिसन्दधतः अज्ञानपरीषहजयो ऽवगन्तव्यः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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