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________________ उत्तरज्झयणाणि ५७६ पर भी व्यक्ति उनका उपभोग नहीं कर पाता। जो बार-बार काम में आते हैं वे उपभोग कहलाते हैं। जैसे- भवन, स्त्री आदि । वीर्यान्तराय—व्यक्ति बलवान् है, स्वस्थ है, तरुण है फिर भी वह एक तिनके को भी तोड़ नहीं सकता। तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी टीका में इनकी व्याख्या इस ५. प्रकार है' १. दानान्तराय- - जब समस्त दानान्तराय कर्म का क्षय हो जाता है तब दाता याचक को यथेप्सित वस्तु देने में समर्थ हो सकता है। 1 लाभान्तराय—– जब इस कर्म का सर्वथा क्षय होता है तब व्यक्ति धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष इस चतुर्वर्ग की समस्त सामग्री प्राप्त कर सकता है और उसे अचिन्त्य माहात्म्य की शक्ति भी प्राप्त हो जाती है, जिससे वह जो चाहे वह लाभ प्राप्त कर सकता है। २. ३. भोगान्तराय- इसके क्षीण होने पर वस्तु का भोग निर्वाध हो जाता है। ४. उपभोगान्तराय- इसके क्षीण होने पर उपभोग की सामग्री की उपलब्धि में कोई बाधा नहीं रहती। वीर्यान्तराय- इसके क्षय से अप्रतिहत शक्ति प्रगट होती है। ६. (श्लोक १७) ५. इस श्लोक में एक समय में बंधने वाले कर्म स्कंधों का प्रदेशाग्र (परमाणु- परिमाण) बतलाया गया है। आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त-अनन्त कर्म-वर्गणाएं चिपकी रहती हैं । किन्तु जो कर्म-वर्गणाएं एक क्षण में आत्म-प्रदेशों से आश्लिष्ट होती हैं, उनका परिमाण यहां विवक्षित है। ग्रंथिक-सत्त्व का अर्थ है 'अभव्य जीव'। इनकी राग-द्वेषात्मक ग्रंथि अभेद्य होती है, इसलिए इन्हें 'ग्रन्थिक' कहा जाता है। सिद्ध अर्थात् मुक्त जीव जघन्य - युक्तानन्त (अनन्त का चौथा प्रकार ) होते हैं और सिद्ध अनन्तानन्त होते हैं। एक समय में बंधने वाले कर्म-प - परमाणु ग्रन्थिक जीवों से अनन्त गुण अधिक और सिद्धों के अनन्तवें भाग जितने होते हैं। गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड) में इसकी संवादी गाथा जो है, वह इस प्रकार हैसिद्धणंतियभागं, अभव्यसिद्धादणंतगुणमेव । समयपबद्ध बंधदि, जोगवआदो दु विसरित्थं ॥ ४ ॥ 9. तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी टीका, पृ० १४३ । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६४७ द्वादशमुहूर्त्तमानामेवैतामिच्छन्ति, तदभिप्रायं न विद्मः । ३. कर्मप्रकृति, बंधनकरण ३० : सव्वष्पगुणा ते पढम वग्गणा सेसिया विसेसृणा । अविभागुत्तरियाओ सिद्धाणमणंतभागसमा ।। Jain Education International अध्ययन ३३ : श्लोक १५-२४ टि० ५-८ ७. (श्लोक १८) आत्मा का अवगाहन पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व तथा अधस् - इन छहों दिशाओं में होता है। इन दिशाओं में जो आत्मा से अन्तरावगाढ़ कर्म-प्रायोग्य पुद्गल हैं, उनका आत्मा ग्रहण करती है। यहां जो छह दिशाओं का विधान किया गया है वह द्वीन्द्रिय आदि जीवों की अपेक्षा से है। एकेन्द्रिय जीव तीन, चार, पांच या छह दिशाओं से भी कर्म- पुद्गल ग्रहण करते हैं । द्वीन्द्रिय आदि जीव नियमतः छह दिशाओं से ही कर्म- पुद्गल ग्रहण करते हैं। इन छह दिशाओं में स्थित कर्म-प्रायोग्य पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशों से सम्बद्ध होते हैं। ऐसा नहीं होता कि आत्मा के कुछेक प्रदेश ही कर्मों से संबद्ध होते हों। 1 कर्मबन्ध का एक नियम है आत्मा सब कर्म प्रकृतियों के प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण सामान्य रूप से करती है और अध्यवसाय की भिन्नता के आधार पर उन्हें ज्ञानावरण आदि विभिन्न रूपों में परिणत करती है। कर्मबन्ध का दूसरा नियम है-कर्म-पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं, कुछेक प्रदेशों से नहीं । ८. (श्लोक १९-२० ) सूत्रकार ने वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की बतलाई है। तत्त्वार्थ ८ १६ में उसकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त्त की निरूपित है। शान्त्याचार्य ने लिखा है कि इस मतान्तर का आधार ज्ञात नहीं है। यह अन्वेषणीय है। ९. (श्लोक २४) सबसे पहले अल्परस वाले कर्म-परमाणुओं की प्रथम वर्गणा होती है। उसमें कर्म परमाणु सबसे अधिक होते हैं। उसकी अपेक्षा द्वितीय वर्गणा के कर्म- परमाणु विशेषहीन हो जाते हैं और तृतीय वर्गना में उससे भी हीन हो जाते हैं। सर्वोत्कृष्ट वर्गणा सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण होती है। इन वर्गणाओं में रस - विभाग की क्रमशः वृद्धि होती है और कर्म वर्गणाओं की क्रमशः हानि होती है। कर्म-ग्रहण के समय जीव कर्म-परमाणुओं के अनुभागविपाकशक्ति अथवा रसविभाग उत्पन्न करता है। कर्म-परमाणुओं में होने वाले अनुभाग का अविभाज्य अंश रसविभाग कहलाता है। एक-एक कर्म-परमाणु में सब जीवों से अनन्तगुण अधिक रस-विभाग होते हैं।" ४. वही, बंधनकरण २६ : गहणसमयम्मि जीवो, उप्पाएई गुणं सपच्चयओ । सव्वजियानंतगुणे, कम्मपएसेसु सव्वेसुं । । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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