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________________ आमुख अठाईसवें अध्ययन में मोक्ष-मार्ग की गति (अवबोध) दी तहेव हिंसं अलियं, चोज्ज अबंभसेवणं। गई है और इस अध्ययन में अनगार-मार्ग की। इसीलिए इच्छाकामं च लोभ च, संजओ परिवज्जए।। (३५/३) उसका नाम-'मोक्खामग्गगई' और इसका नाम चौंतीसवें अध्ययन (श्लोक ३१) में बतलाया गया है'अणगारमग्गगई'-'अनगार-मार्ग-गति' है। 'धम्मसुक्काणि झायए'-मुनि धर्म्य और शुक्ल ध्यान का अभ्यास अनगार मुमुक्षु होता है, अतः उसका मार्ग मोक्ष-मार्ग से करे। भिन्न कैसे होगा? यदि नहीं होगा तो इसके प्रतिपादन का फिर इस अध्ययन (श्लोक १६) में केवल शुक्लध्यान के क्या अर्थ है? अभ्यास की विधि बतलाई गई है—'सुक्कझाणं झियाएज्जा'। इस प्रश्न को हम इस भाषा में सोचें-मोक्ष-मार्ग व्यापक इसमें मृत्यु-धर्म की ओर भी इंगित किया गया है। मुनि शब्द है। उसके चार अंग हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपः जब तक जीए तब तक असंग जीवन जीए और जब काल-धर्म नाणं च दसणं चेव, चरितं च तवो तहा। उपस्थित हो, तब वह आहार का परित्याग कर दे (श्लोक एस मग्गो त्ति पन्नत्तो जिणेहि वरदसिहि।। (२८१२) २०)। आगमकार को अनशनपूर्वक मृत्यु अधिक अभीप्सित है। अनगार-मार्ग मोक्ष-मार्ग की तुलना में सीमित है। ज्ञान, जीवन-काल में देह-व्युत्सर्ग के अभ्यास का निर्देश दिया दर्शन और तप की आराधना गृहवास में भी हो सकती है। गया है (श्लोक १६)। देह-व्युत्सर्ग का अर्थ देह-मुक्ति नहीं, उसके जीवन में केवल अनगार-चारित्र की आराधना नहीं किंतु देह के प्रतिबन्ध से मक्ति है। मनुष्य के लिए देह तब तक होती। प्रस्तुत अध्ययन में उसी का प्रतिपादन है। इस तथ्य को बन्धन रहता है, जब तक वह देह से प्रतिबद्ध रहता है। देह इस भाषा में भी रखा जा सकता है कि प्रस्तुत अध्ययन में के प्रतिबन्ध से मुक्त होने पर वह मात्र साधन रहता है, बन्धन मोक्ष-मार्ग के तीसरे अंग (चारित्र) के द्वितीय अंश- नहीं। अनगार-चारित्र-का कर्त्तव्य-निर्देश है। देह-व्युत्सर्ग असंग का मुख्य हेतु है। यही अनगार का इस अध्यन का मुख्य प्रतिपाद्य संग-विज्ञान है। संग का मार्ग है। इससे दुःखों का अंत होता है (श्लोक १)। अनगार का अर्थ लेप या आसक्ति है। उसके १३ अंग बतलाए गए हैं- मार्ग दुःख-प्राप्ति के लिए नहीं, किन्तु दुःख-मुक्ति के लिए है। १. हिंसा, ८. गृह-निर्माण, अनगार दुःख को स्वीकार नहीं करता, किन्तु उसके मूल को २. असत्य, ६. अन्न-पाक, विनष्ट करने का मार्ग चुनता है और उसमें चलता है। उस पर ३. चौर्य, १०. धनार्जन की वृत्ति, चलने में जो दुःख प्राप्त होते हैं, उन्हें वह झेलता है। ४. अब्रह्म-सेवन, ११. प्रविद्ध-भिक्षा, मनोहर गृह का त्याग और श्मशान, शून्यगार व वृक्ष-मूल ५. इच्छा-काम, १२. स्वाद-वृत्ति, में निवास कष्ट है पर यह कष्ट झेलने के लक्ष्य से निष्पन्न ६. लोभ, १३. पूजा की अभिलाषा। कष्ट नहीं है, किन्तु इंद्रिय-विजय (श्लोक ४,५) के मार्ग में ७. संसक्त-स्थान, प्राप्त कष्ट है। इसी प्रकार अन्न-पाक न करना और भिक्षा इक्कीसवें अध्ययन में पांचवा महाव्रत अपरिग्रह है। इस लेना कष्ट है पर यह भी अहिंसा-धर्म के अनुपालन में प्राप्त अध्ययन में उसके स्थान पर इच्छा-काम व लोभ-वर्जन है: कष्ट है। (श्लोक १०,११,१२,१६) अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभ अपरिग्गहं च। इस प्रकार इस लघु-काय अध्ययन में अनेक महत्त्वपूर्ण पडिवज्जिया पंच महन्वयाणि, चरिज्ज धम्म जिणदेसियं विऊ। चर्या-अंगों की प्ररूपणा हुई है। (२१।१२) Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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