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________________ (१०) वहां मासिक पत्रों की फाइलें पड़ी थीं। गृह स्वामी की अनुमति ले, हम लोग उन्हें पढ़ रहे थे। सांझ की वेला, लगभग छह बजे होंगे। मैं एक पत्र के किसी अंश का निवेदन करने के लिए आचार्य श्री के पास गया। आचार्य श्री पत्रों को देख रहे थे। जैसे ही मैं पहुंचा, आचार्यश्री ने धर्मदूत के सद्यस्क अंक की ओर संकेत करते हुए पूछा - "यह देखा कि नहीं ?” मैंने उत्तर में निवेदन किया- “नहीं, अभी नहीं देखा।” आचार्यश्री बहुत गम्भीर हो गए। एक क्षण रुक कर बोले-“इसमें बौद्ध-पिटकों के सम्पादन की बहुत बड़ी योजना है। बौद्धों ने इस दिशा में पहले ही बहुत कार्य किया है और अब भी बहुत कर रहे हैं। जैन आगमों का सम्पादन वैज्ञानिक पद्धति से अभी नहीं हुआ है और अभी ध्यान भी नहीं दिया जा रहा है।” आचार्यश्री की वाणी में अन्तर वेदना टपक रही थी, पर उसे पकड़ने के लिए समय की अपेक्षा थी । रात्रिकालीन प्रार्थना के पश्चात् आचार्य श्री ने साधुओं को आमंत्रित किया। वे आए और वन्दना कर पंक्तिबद्ध बैठ गए। आचार्यश्री ने सायंकालीन चर्चा का स्पर्श करते हुए कहा- “जैन आगमों का कायाकल्प किया जाये, ऐसा संकल्प उठा है। उसकी पूर्ति के लिए कार्य करना होगा। बोलो, कौन तैयार है ?” सारे हृदय एक साथ बोल उठे— “सब तैयार हैं।" आचार्यश्री ने कहा- “ महान् कार्य के लिए महान् साधना चाहिए। कल ही पूर्व तैयारी में लग जाओ, रुचि का विषय चुनो और उसमें गति करो।" मंचर से विहार कर आचार्यश्री संगमनेर पहुंचे। पहले दिन वैयक्तिक वातचीत होती रही। दूसरे दिन साधुसाध्वियों की परिषद् बुलाई गई। आचार्यश्री ने परिषद् के सम्मुख आगम सम्पादन के संकल्प की चर्चा की। सारी परिषद् प्रफुल्ल हो उठी। आचार्यश्री ने पूछा – “क्या इस संकल्प को अब निर्णय का रूप देना चाहिए ?" अपनी-अपनी समलय से प्रार्थना का स्वर निकला - “ अवश्य, अवश्य।” आचार्य श्री औरंगाबाद पधारे। सुराणा भवन, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (वि० सं० २०११), महावीर जयंती का पुण्य पर्व आचार्यश्री ने साधु साध्वी, धावक और श्राविका इन चतुर्विध संघ की परिषद् में आगम सम्पादन की विधिवत् घोषणा की। आगम-संपादन का कार्यारम्भ वि० सं० २०१२ श्रावण मास ( उज्जैन चातुर्मास ) से आगम- सम्पादन का कार्यारम्भ हो गया। न तो सम्पादन का कोई अनुभव और न कोई पूर्व तैयारी अकस्मात् धर्मदूत का निमित्त पा आचार्यश्री के मन में संकल्प उठा और उसे सबने शिरोधार्य कर लिया । चिन्तन की भूमिका से इसे निरी भावुकता ही कहा जाएगा, किन्तु भावुकता का मूल्य चिन्तन से कम नहीं है। हम अनुभव-विहीन थे, किन्तु आत्म-विश्वास से शून्य नहीं थे । अनुभव आत्म-विश्वास का अनुगमन करता है, किन्तु आत्म-विश्वास अनुभव का अनुगमन नहीं करता । प्रथम दो-तीन वर्षों में हम अज्ञात दिशा में यात्रा करते रहे। फिर हमारी सारी दिशाएं और कार्य-पद्धतियां निश्चित व सुस्थिर हो गईं। आगम सम्पादन की दिशा में हमारा कार्य सर्वाधिक विशाल व गुरुतर कठिनाइयों से परिपूर्ण है, यह कह कर मैं स्वल्प भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं। आचार्यश्री के उत्साहवर्धक दिव्य आशीर्वाद से हमारा कार्य निरन्तर गतिशील हो रहा है। इस कार्य में हमें अन्य अनेक विद्वानों की सद्भावना, समर्थन व प्रोत्साहन मिल रहा है। सामूहिक वाचना जैन- परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चुकी हैं। देवर्द्धिगणी के बाद कोई सुनियोजित आगम-वाचना नहीं हुई। उनके वाचना - काल में जो आगम लिखे गए थे, वह इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए हैं। उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। आचार्य श्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह पूर्ण नहीं हो सका । अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसंधानपूर्ण, गवेषणापूर्ण तटस्थ दृष्टि - समन्वित तथा सपरिश्रम होगी तो वह अपने आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारम्भ हुआ। - हमारी इस वाचना के प्रमुख आचार्यश्री तुलसी हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन - कर्म के अनेक अंग हैं-पाठ का अनुसंधान, भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन, तुलनात्मक अध्ययन आदि-आदि। इन सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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