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________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४४७ अध्ययन २८ : श्लोक ६ टि० ४-५ मनुष्य लोक पर्यन्त है। __हैं और उनको तीन श्रेणियों में विभक्त किया है(३) स्वामी की दृष्टि से-अवधिज्ञान का स्वामी देव, (१) प्राकृत-पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ।। नारक, मनुष्य और तिर्यंच---कोई भी हो सकता है, मनःपर्यवज्ञान (२) अप्राकृत-अचेतन-काल और देश । का अधिकारी केवल मुनि ही हो सकता है। (३) चेतन-आत्मा और मन।' उक्त विवेचन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि दोनों एक पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने पांच परम जातियां मानी ही ज्ञान की दो अवस्थाएं हैं। मति-श्रुत की तरह इन्हें भी हैं--(१) द्रव्य, (२) अन्यत्व, (३) विभिन्नता, (४) गति और कथंचित् एक मान लेना अयुक्त नहीं है। (५) अगति। इनकी संगति जैन परिभाषिक शब्दों में इस केवलज्ञान प्रकार है-अन्यत्व अस्तित्व का सूचक है। विभिन्नता नास्तित्व यह पूर्ण ज्ञान है। इसे सकल-प्रत्यक्ष कहा जाता है। का सूचक है। गति उत्पाद और व्यय की तथा अगति ध्रौव्य की इसका विषय है-सर्व द्रव्य और सर्व पर्याय। केवलज्ञान प्राप्त सूचक है। होने पर ज्ञान एक ही रह जाता है। अरस्तू ने दस परम जातियां मानी हैं-(१) द्रव्य,(२) गुण, ४. जो गणों का आश्रय होता है. वह द्रव्य है (गणाणमासओ (३) मात्रा, (४) सम्बन्ध, (५) क्रिया, (६) आक्रान्ता, (७) देश, दव्यं) (८) काल, (६) स्वामित्व और (१०) स्थिति। स्पिनोजा ने कहा-सारी सत्ता एक द्रव्य ही है। उसमें जो गुणों का आश्रय–अनन्त गुणों का पिण्ड है, वह द्रव्य है। यह उत्तराध्ययन-कालीन परिभाषा है। अनन्त गुण हैं, परन्तु हम अपनी सीमाओं के कारण केवल दो उत्तरवर्ती साहित्य में द्रव्य की जो परिभाषा हुई, उसमें गुणों-चिन्तन और विस्तार से परिचित हैं। चिन्तन क्रिया है कुछ अधिक जुड़ा है। वह दो प्रकार से प्राप्त होती है और विस्तार गुण। इस तरह यह वैशेषिक दर्शन के निकट आ जाता है। द्रव्य के लिए स्पिनोजा ने 'सब्सटेन्स' (Substance) (१) जो गुण-पर्यायवान् है, वह द्रव्य है।' (२) जो सत् है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है वह द्रव्य शब्द का प्रयोग किया है।” इसका अर्थ है-नीचे खड़ा होने वाला, सहारा देने वाला। आशय यह है कि सब्सटेन्स गुणों का वाचक उमास्वाति ने 'पर्याय' शब्द और अधिक जोड़ा सहारा या आलम्बन है। उसके अनुसार द्रव्य या सत् के लिए है। उसकी तुलना महर्षि कणाद के 'क्रिया' शब्द से होती है।' बहुवचन का प्रयोग अनुचित है। सत् या द्रव्य एक ही है और दूसरी परिभाषा जैन-परम्परा की अपनी मौलिक है। जो कुछ भी है इसके अन्तर्गत आ जाता है। जैन-साहित्य में 'द्रव्य' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ कुमारिल के अनुसार 'जिसमें क्रिया और गुण हो', वह द्रव्य है। उनके अनुसार द्रव्य के ११ भेद हैं-(१) पृथ्वी, द्रव्य–जिसमें पूर्व रूप का प्रलय और उत्तर रूप का । (२) जल, (३) तेज, (४) वायु, (५) आकाश, (६) दिग्, निर्माण होता रहता है। (७) काल, (८) आत्मा, (६) मन और (१०) अन्धकार तथा (११) शब्द। द्रव्य-सत्ता का अवयव। डेकार्ट ने दो द्रव्य माने हैं-आत्मा और प्रकृति । २ इन्हीं द्रव्य-सत्ता का विकार। को उन्होंने सत् की दो परम जातियां कहा है। आत्मा-चेतन द्रव्य-गुण-समूह। है और विस्तार रहित है। प्रकृति-अचेतन है और विस्तार द्रव्य-भावी पर्याय के योग्य। इसका तत्त्व है। द्रव्य-भूत पर्याय के योग्य । वैशेषिक दर्शन के अनुसार जिसमें ‘क्रिया और गुण हों ५ ५. जो एक (केवल) द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण और जो समवायी कारण हो', उसे द्रव्य कहते हैं। उनके द्वारा होते हैं (एगदव्वस्सिया गुणा). सम्मत छह पदार्थों में 'द्रव्य' एक पदार्थ है। 'द्रव्य' आश्रय है; 'जो एक मात्र दव्य आश्रित होते हैं, वे गुण कहलाते गुण और कर्म उस पर आश्रित हैं। वैशेषिकों ने द्रव्य नौ माने हैं'-यह गुण की उत्तराध्ययन-कालीन परिभाषा है। तत्त्वार्थ १. तत्त्वार्थ सूत्र, ५।३७ : गुणपर्यायवद् द्रव्यम्। २. (क) तत्त्वार्थ सूत्र, ५२६ : उत्पाद्व्ययधीव्ययुक्तं सत्। (ख) पंचास्तिकाय, १०: दव्वं सल्लक्खगिय, उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्त। ___ गुणपज्जयासयं वा, तं जं भण्णंति सव्वण्णू।। ३. वैशेषिक दर्शन, १।११५ । ४. विशेषावश्यकभाष्य, गा०२८। ५. वैशेषिक दर्शन, १९१५ : क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्। ६. वैशेषिक दर्शन, १।१।१५। ७. दर्शन संग्रह, पृ० १६३। ८. वही, पृ० १६०। ६. वही, पृ० १६१। १०. वही, पृ० १६१। ११. तत्त्वज्ञान, पृ० ४७। १२. वही, पृ० ४७। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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