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________________ उत्तरज्झयणाणि के साथ-साथ वचनात्मक होता है। मतिज्ञान साक्षर हो सकता है, वचनात्मक नहीं । श्रुतज्ञान त्रैकालिक होता है, उसका विषय प्रत्यक्ष नहीं होता। शब्द के द्वारा उसके वाच्यार्थ को जानना और शब्द के द्वारा ज्ञात अर्थ को फिर से प्रतिपादित करनायही इसकी समर्थता है। मति और श्रुत में कार्य कारणभाव सम्बन्ध है । मति कारण है और श्रुत कार्य। श्रुतज्ञान का वास्तविक कारण श्रुत - ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम है। मतिज्ञान उसका बहिरंग कारण है। श्रुतज्ञान के दो प्रकार हैं- अंग-वाह्य और अंग-प्रविष्ट । तीर्थङ्कर द्वारा उपदिष्ट और गणधरों द्वारा प्रणीत शास्त्र अंग-प्रविष्ट कहलाते हैं। स्थविर या आचार्यों द्वारा प्रगीत शास्त्र अंग बाह्य कहलाते हैं। अंग-प्रविष्ट के बारह भेद हैं।' अंग बाह्य के कालिक, उत्कालिक आदि अनेक भेद हैं। आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि जितने अक्षर हैं। और उनके जितने विविध संयोग हैं, उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं। इसके मुख्य भेद १४ हैं (१) अक्षर श्रुत (२) अनक्षर श्रुत (३) संज्ञी श्रुत (४) असंज्ञी श्रुत (५) सम्यक् श्रुत (६) मिथ्या श्रुत (८) अनादि श्रुत (८) सपर्यवसित श्रुत (१०) अपर्यवसित श्रुत (११) गमिक श्रुत (१२) अगमिक श्रुत (१३) अंग-प्रविष्ट श्रुत (७) सादी श्रुत (१४) अनंग-प्रविष्ट श्रुत।" विशेष विवरण के लिए देखें—नंदी, सूत्र ५५-१२७ । पांच ज्ञानों में चार ज्ञान स्थाप्य हैं- केवल स्वार्थ हैं। परार्थज्ञान केवल एक है। वह है- श्रुतज्ञान।' उसी के माध्यम से सारा विचार-विनिमय और प्रतिपादन होता है। अवधिज्ञान यह नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष - ज्ञान का एक प्रकार है। यह मूर्त द्रव्यों को साक्षात् जानता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अवधियों से यह बंधा रहता है, अतः इसे अवधिज्ञान कहते हैं । इसके दो प्रकार हैं-भव - प्रत्ययिक और क्षायोपशमिक । देव और नारक को होने वाला अवधिज्ञान 'भव प्रत्ययिक' कहलाता है। यह जन्म-जात होता है अर्थात् देवगति और नरकगति से उत्पन्न होते ही यह ज्ञान हो जाता है। तिर्यंच और मनुष्य को उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान 'क्षायोपशमिक' कहलाता है। दोनों में आवरण का क्षयोपशम तो होता ही है। 9. नन्दी, सूत्र ७३, ८० २. वही, सूत्र ७३-७८६ । ३. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १७ : पत्तेयमक्खराई, अक्खरसजोगा जत्तिया लोए । एवइया सुयनाणे, पयडीओ होति नायव्या ।। ४४६ ४. नन्दी, सूत्र ५५ । ५. अणुओगदाराई, सूत्र २ । अध्ययन २८ : श्लोक ४ टि० ३ अन्तर केवल प्राप्ति के प्रकार में होता है । भव प्रत्ययिक में जन्म ही प्रधान निमित्त होता है और क्षायोपशमिक में वर्तमान साधना ही प्रधान निमित्त होती है। अवधिज्ञान के छह प्रकार हैं- Jain Education International (१) अनुगामी जो सर्वत्र अवधिज्ञानी का अनुगमन करे । (२) अननुगामी उत्पत्ति क्षेत्र के अतिरिक्त क्षेत्र में जो न रहे । (३) (४) (५) (६) वर्द्धमान- उत्पत्ति काल से जो क्रमशः बढ़ता रहे। हीयमान - जो क्रमशः घटता रहे। प्रतिपाती उत्पन्न होकर जो वापस चला जाए। अप्रतिपाती — जो आजीवन रहे अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने तक रहे। विस्तृत वर्णन के लिए देखिए... नंदी, सूत्र ७ - २२ । मनः पर्यवज्ञान यह मन के पर्यायों को साक्षात् करने वाला ज्ञान है। इसके दो भेद है काजुमति और विपुलमति । यह द्रव्य की अपेक्षा से मन रूप में परिणत पुद्गल को क्षेत्र की अपेक्षा से मनुष्य क्षेत्र तक काल की अपेक्षा से असंख्य काल तक के अतीत और भविष्य को और भाव की अपेक्षा से मनोवर्गणा की अनन्त अवस्थाओं को जानता है। मनः पर्यव के विषय में दो परम्पराएं हैं। एक परम्परा यह मानती है कि मनः पर्यवज्ञानी चिंतित अर्थ का प्रत्यक्ष कर लेता है ।" दूसरी परम्परा यह मानती है कि मनः पर्यवज्ञानी मन की विविध अवस्थाओं को तो प्रत्यक्ष करता है, किन्तु उनके अर्थ को अनुमान से जानता है।" आधुनिक भाषा में इसे मनोविज्ञान का विकसित रूप कहा जा सकता है। अवधि और मनः पर्यव दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य तक सीमित हैं, अपूर्ण हैं। इन्हें विकल- प्रत्यक्ष कहा जाता है। चार दृष्टियों से दोनों में भिन्नता है (१) विषय की दृष्टि से मनः पर्यवज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्मता से और विशदता से जानता है। अवधिज्ञान का विषय सभी रूपी द्रव्य हैं, मनःपर्यवज्ञान का विषय केवल मन है। (२) क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञान का विषय अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सारा लोक है, मनः पर्यव का विषय ६. नन्दी, सूत्र ६ । ७. वही, सूत्र ७, ८ ८. वही सूत्र | ६. वही, सूत्र २४, २५ । १०. सर्वार्थसिद्धि, १६ । ११. विशेषावश्यकभाष्य गाथा ८१७, वृत्ति पत्र २६४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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