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________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४४५ अध्ययन २८ : श्लोक ४ टि० ३ के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह श्रुत-पूर्वक ही हो।' कहा गया है।' जिनभद्र कहते हैं कि जो ज्ञान श्रुतानुसारी है, वह भाव-श्रुत है, अश्रुत-निश्रित के चार भेद हैं--(१) औत्पत्तिकी, (२) शेप मति है। वैनयिकी, (३) कर्मजा और (8) पारिणामिकी। ___मतिज्ञान दो प्रकार का है...--(१) श्रुत-निश्रित और (२) पांच इन्द्रिय और मन के साथ अवग्रह आदि का गुणन अश्रुत-निश्रित । करने से मतिज्ञान २८ प्रकार का होता है। चक्षु और मन का श्रुत-निश्रित के चार भेद हैं--(१) अवग्रह, (२) ईहा, व्यंजनावग्रह नहीं होता। तालिका इस प्रकार होती है। (३) अवाय और (४) धारणा। इन्हें सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष भी आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान श्रुत निश्रित _अश्रुत-निश्रित .. अश्रुत-निश्रित अवग्रह ईहा' अवाय' धारणा' औत्पत्तिकी वैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह Tरस श्रोत्र घ्राण स्पर्श सिद्धसेन दिवाकर श्रुतज्ञान को मतिज्ञान से भिन्न नहीं अनुमान और आगम।" मानते। उनके अनुसार इसको भिन्न मानने से वैयर्थ्य और इनमें प्रथम चार मतिज्ञान के प्रकार हैं और आगम अतिप्रसंग दोष आते हैं। श्रुतज्ञान है। वस्तुतः ज्ञान एक ही है---केवलज्ञान। शेष सभी सिद्धसेन दिवाकर की यह मान्यता निराधार नहीं है। ज्ञान की अविकसित अवस्था के द्योतक हैं। सभी का अन्तर्भाव क्योंकि मतिविज्ञान और श्रुतज्ञान-दोनों की कारण-सामग्री केवलज्ञान में सहज ही हो जाता है। एक है। इन्द्रिय और मन दोनों के साधन हैं तथा श्रुतज्ञान मति एक अपेक्षा से ज्ञान दो प्रकार का है-इन्द्रिय-ज्ञान और के ही आगे की एक अवस्था है। श्रुत मति-पूर्वक ही होता अतीन्द्रिय-ज्ञान । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय-ज्ञान हैं। अवधि, है-इन सभी अपेक्षाओं से श्रुत को अलग मानने की कोई मनःपर्यव और केवल-अतीन्द्रिय-ज्ञान हैं। आवश्यकता नहीं रहती। श्रुत 'शाब्द-ज्ञान' है। इसकी अपनी अथवा ज्ञान तीन हैं-(१) मति-श्रुत, (२) अवधि-मनापर्यव, विशेषता है। कारण-सामग्री एक होने पर भी मतिज्ञान केवल (३) केवलज्ञान। वर्तमान को ही ग्रहण करता है। परन्तु श्रुतज्ञान का विषय मति-श्रुत की एकात्मकता के बारे में पहले लिखा जा 'त्रैकालिक' है। इसका विशेष सम्बन्ध 'मन' से रहता है। सारा चुका है। अवधि और मनःपर्यव भी विषय की दृष्टि से एक हैं, आगम-ज्ञान श्रुतज्ञान है। इस अपेक्षा से इसका भिन्न निरूपण इसीलिए इस अपेक्षा से उन्हें एक विभाग में मान लेना अयुक्त भी युक्ति-संगत है। नहीं है। केवलज्ञान की अपनी स्वतंत्र सत्ता है ही। प्रमाण के दो भेद हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष। मतिज्ञान तज्ञान और श्रुतज्ञान-इन दोनों का परोक्ष में समावेश किया गया है आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत आगम या अन्य शास्त्रों से जो और शेष तीनों-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान ज्ञान होता है, उसे श्रृतज्ञान कहते हैं अथवा शब्द, संकेत आदि का प्रत्यक्ष में। से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है अथवा वाच्य और वाचक के परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं---स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, सम्बन्ध से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान साक्षर होने १. तत्त्वार्थ सूत्र १३१ भाष्य : श्रुतज्ञानस्य मतिज्ञानेन नियतः सहभावः ५. जैन तर्कभाषा, पृ० २। तत्पूर्वकत्वात् । यस्य श्रुतज्ञानं तस्य नियतं मतिज्ञानं, यस्य तु मतिज्ञानं ६. नन्दी, सूत्र ३८। तस्य श्रुतज्ञानं स्याद् वा न वेति। ७. वही, सूत्र ४०-४२। २. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १०० : ८. प्रत्येक के श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रस, स्पर्श और नोइन्द्रियइंदिय मणो निमित्तं, जं विण्णाणं सुयाणुसारेण । (मन) ये छह भेद हैं। निययत्थुतिसमत्थं, तं भावसुयं मई इयरा।। ६. वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां, न मत्यभ्यधिकं श्रुतम्। ३. नन्दी, सूत्र ३७। १०. नन्दी, सूत्र ३, ६, ३३। ४. वही, सूत्र ३६। ११. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३१२। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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