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________________ असंस्कृत ९१ अध्ययन ४ : श्लोक ११-१२ टि० २७-३१ २७. अप्रमत्त होकर विचरण करो (चरमप्पमत्तो) मोहगुण की तुलना रजस् और तमस् से की जा सकती है। यहां मकार अलाक्षणिक है। पद है-चर अप्पमत्तो-तुम २९. प्रतिकूल (असमंजस) अप्रमत्त होकर विचरण करो। प्रमाद के परिहार और अपरिहार चूर्णिकार ने 'असमंजस' शब्द का बहुवचनान्त प्रयोग के द्योतक दृष्टांत इस प्रकार हैं किया है। इससे प्रतीत होता है कि उनके सामने 'असमंजसा' ___एक व्यापारी दूर देश जाने के लिए प्रस्थित हुआ। उसने पाठ था। उनके अनुसार यह 'फासा' का विशेषण है। इसका अपनी पत्नी से कहा- मुझे कुछ समय लगेगा। तुम यहां का अर्थ है-प्रतिकूल, अनभिप्रेता कारोबार संभाल लेना । कर्मचारियों को व्यवस्थित रूप से काम में बृहद्वृत्ति में 'असमंजसं' को क्रिया-विशेषण मानकर लगाए रखना। इसका अर्थ-प्रतिकूल किया है। प्रतिकूल स्पर्श असंतुलन पैदा व्यापारी परदेश चला गया। उसकी पत्नी का सारा समय करते हैं। हमने यह भावार्थ ही ग्रहण किया है। शरीर के पोषण और शृंगार में बीतने लगा। वह अत्यधिक प्रमाद ३०. स्पर्श पीड़ित करते हैं (फासा फुसंती) में रहने लगी। कर्मचारियों को न वह समय पर उचित कार्यों में यहां स्पर्श का अर्थ है-इन्द्रियों के विषय। ये विषय नियोजित करती और न उन्हें उनका वेतन ही समय पर देती। गहीत होते ही व्यक्ति के साथ संबद्ध हो जाते हैं, उसको पकड़ सारे कर्मचारी वहां से चले गए। सारा व्यापार ठप्प हो गया। लेते हैं। धन की कमी हो गई। कुछ समय पश्चात् सेठ परदेश से चूर्णिकार के अनुसार सभी इन्द्रिय-विषयों में स्पर्शलौटा। घर और कारोबार की दुर्दशा को देखकर वह झल्ला उठा। इन्द्रिय के विषय को सहन करना अत्यन्त दुष्कर होता है। उसने अपनी पत्नी को फटकारा, बुरा-भला कहा और उसको इसलिए यह प्रधान है। घर से निकाल दिया। पत्नी के प्रमाद ने सारे घर को चौपट कर बृहवृत्तिकार ने 'स्पर्श' शब्द के उपादान का औचित्य डाला। बताते हुए कहा है-इन्द्रियों के पांच विषयों में सबसे दुर्जेय हैउसी वणिक् ने प्रचुर धन व्यय कर दूसरी कन्या के साथ स्पर्श विषय। यह व्यापक भी है। इसीलिए इसके ग्रहण से सभी विवाह कर लिया। वह चतुर थी। एक बार सेठ पुनः परदेश इन्द्रिय-विषय गृहीत हो जाते हैं। गया। पत्नी अपने कर्मचारियों को यथासमय कार्य का निर्देश देती ३१. कोमल-अनुकूल (मंदाय) और उन्हें पूर्वाण्ह में और अपराण्ह में भोजन कराती। उनके व्याख्याग्रन्थों में यह शब्द 'मंदा य' (सं० मन्दाश्च) ऐसा साथ वह मृदू व्यवहार करती और मासिक वेतन यथासमय व्याख्यात है। परन्त 'मंदाय' यह एक शब्द है। रायपसेणीय सूत्र चुका देती। सारे कर्मचारी उसके व्यवहार से प्रसन्न थे। १७३ और जीवाजीवाभिगम ३/२८५ में यह शब्द इसी रूप में वह निरन्तर घर की सार-संभाल करती। अपने शरीर के प्राप्त होता है। साज-शृंगार में अधिक समय नहीं लगाती। सेठ परदेश से 'मंद' शब्द के अनेक अर्थ हैं-धीमा, मृदु, हल्का, थोड़ा, लौटा। वह घर का वातावरण देखकर संतुष्ट हुआ और उसे सब छोटा आदि। चर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं.-अल्प और कुछ सौंप दिया। स्त्री । जो प्रमाद का परिहार नहीं करता वह नष्ट हो जाता है बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ इस प्रकार हैंऔर जो प्रमाद का परिहार कर श्रम में अपने आपको नियोजित १. मन्द-मूढ़। हित और अहित को जानने वाले करता है, वह स्वामी बन जाता है। व्यक्ति को भी ये स्पर्श मंद कर देते हैं, अन्यथा बना २८. मोहगुणों (मोहगुणे) डालते हैं। इसका अर्थ है-मोह के सहायभूत इन्द्रियों के विषय २. स्त्री। शब्द, रूप आदि। जो जानकार व्यक्ति को भी आकुल-व्याकुल सुखबोधा में भी ये ही दो अर्थ प्राप्त हैं। कर उन्मार्ग में ले जाता है, वह मोह है। उस मोह को उत्तेजना डॉ० हरमन जेकोबी ने 'मंदा' का अर्थ बाह्य (external) देने वाले इन्द्रिय-विषय 'गुण' कहलाते हैं। किया है। सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरुष-इन दो तत्वों को मुख्य हमने इसका अर्थ कोमल-अनुकूल किया है, जो कि मानता है। प्रकृति के तीन गुण हैं-सत्व, रजस् और तमस्। प्रसंग की दृष्टि से संगत है। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२४, १२५ । ६. बृहवृत्ति, पत्र २२६ : स्पर्शोपादानं चास्यैव दुर्जयत्वाद् व्यापित्वाच्च । २. वही, पृष्ट १२५। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२५ : मंदा णाम अप्पा, अथवा मंदंतीति ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २२६ । मंदाः स्त्रियः...। ४. वही, पत्र २२६ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र २२७॥ ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२५ : एतेसिं पुणो विसयाणं सव्वेसिं दुरधियासतरा ६. सुखबोधा, पत्र ६८। फासा, जतो ववदेस्सते। १०. उत्तराध्ययन सूत्र, पृष्ठ २० : मंदा य फासा... external things | Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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