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सवज्ञ में वचन के दो
और दूसरा अर्थ
अप्पयु
उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ४ : श्लोक १३ टि० ३२-३७ ३२. निवारण करे (रक्खेज्ज)
किया है। यहां 'रक्ष' धातु निवारण के अर्थ में प्रयुक्त है। ३६. दूर रहे (दुगुंछमाणो) ३३. जीवन सांधा जा सकता है (संखया)
इसका शब्दार्थ है-जुगुप्सा करता हुआ, घृणा करता चूर्णि में 'संखया' अर्थात् संस्कृत का पहला अर्थ- हुआ। मुनि किसी की निन्दा नहीं करता, किसी से घणा नहीं 'सस्कृत वचन वाले अर्थात् सर्वज्ञ में वचन के दोष दिखाने करता। इसलिए इस शब्द का यहां तात्पर्य है कि मनि उन वाले' और दूसरा अर्थ 'संस्कृत बोलने में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को भलीभांति जान ले कि वे उन्मार्गगामी हैं, उनका किया गया है। शान्त्याचार्य ने इसका एक अर्थ-'संस्कृत संसर्ग अभिलषणीय नहीं है। सिद्धान्त का प्ररूपण करने वाले'-किया है। उनका संकेत आचार्य नेमिचन्द्र ने इस प्रसंग में दो गाथाएं उद्धत की निरन्वयोच्छेदवादी बौद्धों, एकान्त-नित्यवादी सांख्यों और हैसंस्कारवादी स्मृतिकारों की ओर है। बौद्ध लोग वस्तु को एकान्त 'सुवि उज्जममाणं, पंचेव करेंति रित्तयं समणं। अनित्य मानकर फिर 'सन्तान' मानते हैं तथा सांख्य उसे अप्पधुई परनिंदा, जिन्मोवत्था कसाया य॥' एकान्त-नित्य मानकर फिर 'आविर्भाव तिरोभाव' मानते हैं। -श्रामण्य में परम पुरुषार्थ करने वाले श्रमण को भी ये इसलिए ये दोनों 'संस्कृत धर्मवादी' हैं। स्मृतिकारों के अभिमत पांच बातें श्रामण्य से रिक्त कर देती हैंमें प्राचीन ऋषियों द्वारा निरूपित सिद्धान्त का प्रतिषेध और (१) स्वप्रशंसा (४) कामवासना उसका पुनः संस्कार करके स्मृतियों का निर्माण किया गया
(२) परनिन्दा (५) कषाय चतुष्का इसलिए वे भी संस्कारवादी हैं।
(३) रसलोलुपता डॉ० हरमन जेकोबी तथा अन्य विद्वानों ने मूल में 'संतेहिं असंतेहिं परस्स किं जंपिएहिं दोसेहि। 'असंखया' शब्द माना है। डॉ० सांडेसरा ने इसका तात्पर्यार्थ अत्यो जसो न लन्मइ, सो य अमित्तो कओ होइ।' असहिष्णु, असमाधानकारी किया है।
--दूसरों में विद्यमान या अविद्यमान दोषों की चर्चा करने पहले श्लोक के पहले चरण में जीवन को असंस्कृत कहा का लाभ ही क्या है ? न इससे अर्थ-प्रयोजन ही सिद्ध होता है। उसके संदर्भ में 'संस्कृत' का अर्थ...'जीवन का संस्कार हो है और न इससे यश ही मिलता है। पर जिसके दोषों की चर्चा सकता है, वह फिर सांधा जा सकता है, ऐसा मानने वाले.... की जाती है, वह शत्रु अवश्य बन जाता है। 'यह अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है।
३७. अन्तिम सांस तक (जाव सरीरमेओ) ३४ अशिक्षित हैं (तुच्छ)
आत्मा का शरीर से भिन्न होना या शरीर का आत्मा से चूर्णिकार ने इसका अर्थ-अशिक्षित किया है।' वृत्ति में शुन्य हो जाना शरीरभेद है। यह मरण या विमुक्ति का वाचक इसका अर्थ है—निस्सार वचन कहने वाला, अपनी इच्छानुसार है। सामान्य मरण में स्थूल शरीर छूटता है, पर सूक्ष्म शरीर नहीं सिद्धान्त की प्ररूपणा करने वाला।
छूटते। जब मुक्ति होती है तब स्थूल और सूक्ष्म-दोनों प्रकार ३५. परतंत्र हैं (परज्झा )
के शरीर छूट जाते हैं। यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है-परतंत्र। 'परज्झ' एक चोर धनाढ्य व्यक्तियों के घरों में सेंध लगाकर चोरी (स्था० १०/१०८) तथा 'परज्झा'--ये दोनों शब्द इसी अर्थ में करता था। वह अपार धन चुराकर अपने घर ले जाता और घर व्यवहृत हैं।
में एक ओर बने कुएं में डाल देता। वह रूपवती कन्याओं के चूर्णि में इसके तीन अर्थ प्राप्त हैं—परवश, राग-द्वेष के साथ विवाह करने का शौकीन था। वह उस कूप से धन वशवर्ती तथा अजितेन्द्रिय।
निकालता और मनचाही कन्या से विवाह रचाता। वह कन्या वृत्तिकार ने इसे देशीपद मानकर इसका अर्थ परवश गर्भवती होती तब उसे मारकर वह उसी कुए में डाल देता। वह १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२६ : संस्कृता नाम संस्कृतवचना ३. उत्तराध्ययन सूत्र, पृ० ३७, फुट नो०२। सर्वज्ञवचनदत्तदोषाः, अथवा संस्कृताभिधानरुचयः ।
४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १२७ : तुच्छा णाम असिक्खिता इति। बृहवृत्ति, पत्र २२७ : यद्वा संस्कृतागमप्ररूपकत्वेन संस्कृता, यथा ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २२७ । सीगताः, ते हि स्वागमे निरन्धयोच्छेदमभिधाय पुनस्तेनैव निर्वाहमपश्यन्तः (ख) सुखबोधा, पत्र । परमार्थतोऽन्वयिद्रव्यरूपमेव सन्तानमुपकल्पांबभूवुः, सांख्याश्चैकान्त- ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२६ : परज्झा परवसा रागद्दोसवसगा नित्यतामुक्त्वा तत्त्वतः परिणामरूपां चै (पावे) व पुनराविर्भावतिरो- अजितिंदिया। भावावुक्तवन्तो, यथा वा
७. बृहद्वृत्ति, पत्र २२७ : परज्झ त्ति देशीपदत्वात् परवशा राग-द्वेषग्रह“उक्तानि प्रतिषिद्धानि, पुनः सम्भावितानि च।
ग्रस्तमानसतया न ते स्वतंत्राः। सापेक्षनिरपेक्षाणि ऋषिवाक्यान्यनेकशः।।"
८. सुखबोधा, पत्र ६६) इतिवचनाद्वचननिषेधनसम्भवादिभिरुपस्कृतस्मृत्यादिशास्त्रा मन्वादयः।। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १२६ : भिद्यते इति भेदः, जीवो वा सरीरातो
सरीरं वा जीवातो।
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