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________________ उत्तरज्झयणाणि २१६ अध्ययन १२ :श्लोक ६-१०टि०१०-१७ का अर्थ चुड़ेल भी है। करता था, जो चेष्टाएं कीं, वे इस श्लोक में बताई गई हैं। मुनि १०. (संकरदूसं परिहरिय) जहां-जहां जाते वह यक्ष अदृश रूप में सदा उनके साथ रहता। इसका अर्थ है-गले में संकर-दूष्य (उकुरड़ी से उठाया चूर्णिकार के अनुसार आबनूस का एक वन था। उसके हुआ चिथड़ा) डाले हुए। संकर का अर्थ है-तृण, धूल, राख, बीच में एक बड़ा आबनूस का वृक्ष था। उस पर वह यक्ष गोबर आदि कूड़े-कर्कट का ढेर, उकुरड़ी। वहां वे ही वस्त्र निवास करता था। उसके नीचे चैत्य था। मुनि उसमें ध्यान करते डाले जाते हैं जो अत्यन्त निकृष्ट एवं अनपयोगी होते हैं। मनि थे।" के वस्त्र भी वैसे ही थे या वे फेंकने योग्य वस्त्रों को भी ग्रहण १४. (समणो संजओ बंभयारी) करते थे, इसलिए उनके दूष्य (वस्त्र) को 'संकर-दूष्य' कहा मैं श्रमण हूं, संयमी हूं, ब्रह्मचारी हूं। श्रमण वही होता है गया है। जो संयत है। संयत वही होता है जो ब्रह्मचारी है। इस प्रकार मुनि अभिग्रहधारी थे। जो अभिग्रहधारी होते हैं वे अपने इन तीनों शब्दों में हेतु-हेतुमद्भाव सम्बन्ध है। वस्त्रों को जहां जाते हैं वहां साथ ही रखते हैं, कहीं पर भी १५. धन व पचन-पाचन और परिग्रह से (घणपयणपरिग्गहाओ) छोड़कर नहीं जाते। इसलिए उनके वस्त्र भी उनके साथ ही थे। गाय आदि चतुष्पद प्राणियों को धन कहते हैं।" राजस्थान वस्त्र मुनि के कन्धे पर रखे हुए थे। कन्धा कण्ठ का में अब भी यह शब्द इस अर्थ में प्रचलित है। चूर्णिकार पार्श्ववर्ती भाग है। इसलिए उसे कण्ठ ही मान कर यहां कण्ठ ने परिग्रह का अर्थ स्वर्ण आदि किया है। शान्त्याचार्य के शब्द का प्रयोग हुआ है।' अनुसार इसका अर्थ द्रव्य आदि में होने वाली मूर्छा-ममत्व _ 'परिहर' यह पहनने के अर्थ में आगमिक धातु है। ११. (खलाहि) १६. खाया जा रहा है और भोगा जा रहा है (खज्जइ भुज्जई) यह देशीपद है। चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं"- यहां खाद और भुज् दो धातुओं का प्रयोग हुआ है। १. 'चला जा'—ऐसा तिरस्कारयुक्त गमन का निर्देशवचन। सामान्यतः इन दोनों का प्रयोग खाने के अर्थ में होता है, किन्तु २. इस स्थान से हट जा। इनमें अर्थ-भेद भी है। चूर्णि के अनुसार खाद्य खाया जाता है वत्तिकार ने केवल दसरा अर्थ ही माना है। इसका तात्पर्य और भोज्य भोगा जाता है। है-हमारी आंखों के सामने से हट जा। बृहद्वृत्ति के अनुसार 'खाजा' आदि तले हुए पदार्थ खाद्य १२. अनुकम्पा करने वाला (अणुकंपओ) हैं और दाल-चावल आदि पदार्थ भोज्य कहलाते हैं।" अनुकम्पा का अर्थ है---अनुरूप या अनुकूल क्रिया की १७. भिक्षा-जीवी हूं (जायणजीविणु) प्रवृत्ति । यक्ष मुनि के प्रति आकृष्ट था, उनके अनुकूल प्रवर्तन इसका संस्कृत रूप 'याचनजीवनम्' या 'याचनजीविनम्' करता था, इसलिए उसे 'अनुकम्पक' कहा गया है। बनता है। जहां 'याचनजीवनम्' माना जाए वहां प्राकृत में जो १३. तिन्दुक (आबनूस) वृक्ष का वासी (तिंदुयरुक्खवासी) इकार है, वह अलाक्षणिक माना जाए। इसका अर्थ है-याचना ब्राह्मणों ने मुनि का तिरस्कार किया किन्तु वे कुछ भी के द्वारा जीवन चलाने वाला। इसका वैकल्पिक रूप नहीं बोले, शांत रहे। उस समय आबनूस वृक्ष पर रहने वाले याचनजीविनम्' है। इसके प्राकृत रूप में द्वितीया विभक्ति के यक्ष ने, जो मुनि के तप से आकृष्ट हो मुनि का अनुगमन अर्थ में षष्टी विभक्ति है। याचन-जीवी अर्थात् याचना से १, वृहद्वृत्ति, पत्र ३५६ : 'संकरे' ति सकरः, स चेह प्रस्तावात्तृणभस्म- गोमयागारदिमीलक उवकुरुडिकेति यावत, तत्र दुष्यं-वस्त्रं संकरदुष्यं, तत्र हि यदत्यन्तनिकृष्ट निरुपयोगि तल्लीकैरुत्सृज्यते, ततस्तत्प्रायमन्यदपि तथोक्तं, यद्वा उज्झितधर्मकमेवासी गृह्यतीत्येवमभिधानम्। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : स भगवान् अनिक्षिप्तोपकरणत्वात् यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्र तं पंतोवकरणं कंठे ओलंबेत्तुं गच्छद। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५६ : अत्र कण्टैकपार्श्वः कण्ठशब्दः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : खलाहि—स्खल इति परिभवगमननिर्देशः, तद यथा---खलयस्सा उच्छज्जा अथवा अवसर अस्मात् स्थानात। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५९ : खलाहि नि देशीपदमपसरेत्यर्थे वर्त्तते ततोऽयमर्थ: अस्मद् दृष्टिपथदपसर। (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३५६ : 'अणुकंपउ' त्ति अनुशब्दोऽनुरूपाथै ततश्चानुरूपं कम्पते-चेष्टत इत्यनुकम्पकः----अनुरूपक्रियाप्रवृत्तिः। (ख) सुखबोधा, पत्र १७६ : 'अनुकम्पकः'-अनुकूलक्रियाप्रवृत्तिः। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५९ : एवमधिक्षिप्तेऽपि तस्मिन भुनी प्रशमपरतया किञ्चिदप्यजल्पति तत्सान्निध्यकारी गण्डीतिन्दुकयक्षो यदचेष्टत तदाह। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : स च भगवान् यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्रांतर्हितो भूत्वा स यक्षः तेन्दुकवृक्षवासी तमनुगच्छति। ६. वही, पृ० २०४-२०५ : तस्स तिंदुगठाणस्स मज्झे महतो तिदुगरक्खो, तहिं सो भवति वसति, तस्सेव हिट्ठा चेइय, जत्थ सो साह ठितो, सव्वतेण उद्वितो। १०. वही, पृ० २०५ : कः श्रमणः?, यः संयतः। कः संयतः?, यो ब्रह्मचारी। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : धनं चतुष्पदादि। १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०५ : परिग्रहो-हिरण्णादि । १३. बावृत्ति, पत्र ३६० : परिग्रहो द्रव्यादिपु मूर्छा। १४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०५ : खाइम खज्जति वा भोज्ज अँजति। १५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : खाद्यते खण्डखाद्यादि, भुज्यते च भक्तसूपादि। For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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