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________________ उत्तरज्झयणाणि ४६८ अध्ययन २६ : आमुख (१) जन्म-परम्परा का अल्पीकरण। (सू० ४१) सद्भावना-प्रत्याख्यान--पूर्ण संवर के परिणाम : (१) अनिवृत्ति-मन-वचन और काया की प्रवृत्ति का सर्वथा और सर्वदा अभाव। (२) अघाति-कर्म का विलय। (३) सर्व दुःख-मुक्ति। (सू० ४२) प्रतिरूपता--अचेलकता के परिणाम : (१) लाघव। (२) अप्रमाद। (३) प्रकट लिंग होना। (४) प्रशस्त लिंग होना। (५) विशुद्ध सम्यक्त्व। (६) सत्त्व और समिति को प्राप्त करना। (७) सर्वत्र विश्वसनीय होना। (८) अप्रतिलेखना। (६) जितेन्द्रियता। (१०) विपुल तप सहित होना–परीषह-सहिष्णु होना। (सू० ४३) वैयावृत्त्य का परिणाम : (१) धर्म-शासन के सर्वोच्च पद तीर्थंकरत्व की प्राप्ति। (सू० ४४) सर्व-गुण सम्पन्नता के परिणाम : (१) अपुनरावृत्ति-मोक्ष की प्राप्ति। (२) शारीरिक और मानसिक दुःखों से पूर्ण मुक्ति। (सू० ४५) वीतरागता के परिणाम : (१) स्नेह और तृष्णा के बन्धन का विच्छेद। (२) प्रिय शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों में विरक्ति। (सू० ४६) क्षांति-सहिष्णुता का परिणाम : (१) परीषह-विजय। (सू० ४७) मुक्ति के परिणाम : (१) आकिंचन्य। (२) अर्थ-लुब्ध व्यक्तियों के द्वारा अस्पृहणीयता। (सू०४८) ऋजुता के परिणाम : (१) काया की सरलता। (२) भावों की सरलता। (३) भाषा की सरलता। (४) अविसंवादन–अवंचना-वृत्ति। (सू० ४६) मृदुता के परिणाम : (१) अनुद्धत मनोभाव। (२) आठ मद-स्थानों पर विजय। (सू० ५०) भाव-सत्य के परिणाम : (१) भाव-विशुद्धि। (२) अर्हद्-धर्म की आराधना। (३) परलोक धर्म की आराधना। (सू०५१) करण-सत्य के परिणाम : (१) कार्यजा-शक्ति की प्राप्ति। (२) कथनी और करनी का सामंजस्य। (सू० ५२) योग-सत्य का परिणाम : (१) मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति की _ विशुद्धि। (सू० ५३) मनो-गुप्ति के परिणाम : (१) एकाग्रता। (२) संयम की आराधना। (सू० ५४) वचन-गुप्ति के परिणाम : (१) विकार-शून्यता या विचार-शून्यता। (२) अध्यात्म-योग और ध्यान की प्राप्ति। (सू०५५) काय-गुप्ति के परिणाम : (१) संवर (२) पापाश्रव का निरोध । (सू० ५६) मन-समाधारणा के परिणाम : (१) एकाग्रता। (२) ज्ञान की विशिष्ट क्षमता। (३) सम्यक्त्व की विशुद्धि और मिथ्यात्व का क्षय। (सू०५७) वचन-समाधारणा के परिणाम : (१) वाचिक सम्यग-दर्शन की विशुद्धि। (२) सुलभ-बोधिता की प्राप्ति और दुर्लभ-बोधिता का क्षय। (सू० ५८) काय-समाधारणा के परिणाम : (१) चारित्र-विशुद्धि। (२) वीतराग-चारित्र की प्राप्ति। (३) भवोपग्राही कर्मों का क्षय। (४) सर्व-दुःखों से मुक्ति। (सू० ५६) ज्ञान-सम्पन्नता के परिणाम : (१) पदार्थ-बोध। (२) पारगामिता। (३) विशिष्ट विनय आदि की प्राप्ति। (४) प्रामाणिकता। (सू० ६०) दर्शन-सम्पन्नता के परिणाम : (१) भव-मिथ्यात्व का छेदन। (२) सतत प्रकाश। (३) ज्ञान और दर्शन की उत्तरोत्तर विशुद्धि। (सू०६१) चारित्र-सम्पन्नता के परिणाम : (१) अप्रकम्प-दशा की प्राप्ति। (२) भवोपग्राही कर्मों का विलय। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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