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________________ आमख ब्रह्मचर्य-समाधि का निरूपण होने के कारण इस अध्ययन ८. मात्रा से अधिक न खाए और न पीए। का नाम 'बंभचेरसमाहिठाणं'–'ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान' है। इसमें ६. विभूषा न करे। ब्रह्मचर्य-समाधि के दस स्थानों का वर्णन है। स्थानाग और १०. शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में आसक्त न हो। समवायाङ्ग में भी ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का वर्णन प्राप्त होता उत्तराध्ययन में जो दसवां स्थान है, वह स्थानाङ्ग और है। तुलनात्मक तालिका यों है समवायाङ्ग में आटवां स्थान है। अन्य स्थानों का वर्णन प्रायः स्थानाङ्ग तथा समवायाङ्ग में वर्णित नौ गुप्तिया समान है। केवल पांचवां स्थान स्थानाङ्ग तथा समवायाग में १. निग्रंथ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और नहीं है। आसन का सेवन न करे। प्रस्तुत अध्ययन में चक्षु-गृद्धि की भांति पांचवे स्थान में २. केवल स्त्रियों के बीच कथा न कहे अर्थात् स्त्री-कथा शब्द-गृद्धि का भी वर्जन किया गया है और दसवें स्थान में पांचों न करे। इन्द्रियों की आसक्ति का समवेत रूप से वर्जन किया गया है। ३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। यहां दस समाथि स्थानों का वर्णन बहुत ही मनोवैज्ञानिक ४. स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को न देखे ढंग से हुआ है। शयन, आसन, काम-कथा, स्त्री-पुरुष का एक और न अवधानपूर्वक उनका चिन्तन करे। आसन पर बैठना, चक्षु-गृद्धि, शब्द-गृद्धि, पूर्व क्रीड़ा का ५. प्रणीत रसभोजी न हो। स्मरण, सरस आहार, अतिमात्र आहार, विभूषा, इन्द्रिय-विषयों ६. मात्रा से अधिक न खाए और न पीए। की आसक्ति-ये सब ब्रह्मचर्य की साधना में विघ्न हैं। इसलिए ७. पूर्व-क्रीड़ाओं का स्मरण न करे। इनके निवारण को 'ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान' या 'ब्रह्मचर्य-गुप्ति' शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श तथा श्लोक-कीर्ति में कहा गया है। आसक्त न हो। ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्ति-निग्रह है। वह पांचों इन्द्रियों तथा ६. साता और सुख में प्रतिबद्ध न हो। मन के संयम के बिना प्राप्त नहीं होता। इसलिए उसका अर्थ उत्तराध्ययन के दस स्थान 'सर्वेन्द्रिय-संयम' है। ये समाधि-स्थान इन्द्रिय-संयम के ही १. निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण शयन स्थान हैं : और आसन का प्रयोग न करे। स्पर्शन-इन्द्रिय-संयम के लिए सह-शयनासन और एक २. स्त्रियों के बीच कथा न कहे। आसन पर बैठना वर्जित है। ३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। रसन-इन्द्रिय-संयम के लिए सरस और अति-मात्रा में ४. स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि आहार करना वर्जित है। गड़ा कर न देखे। घाण-इन्द्रिय-संयम के लिए कोई पृथक् विभाग निर्दिष्ट स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, विलाप आदि नहीं है। के शब्द न सुने। चक्षु-इन्द्रिय-संयम के लिए स्त्री-देह व उसके हाव-भावों ६. पूर्व-क्रीड़ाओं का अनुस्मरण न करे। का निरीक्षण वर्जित है। ७. प्रणीत आहार न करे। श्रोत्र-इन्द्रिय-संयम के लिए हास्य-विलास पूर्ण शब्दों (क) ठाणं, ६३ : नव बंभचेरगुत्तीओ पं० त०१. विवित्ताई सयणासणाई भवइ। ३. नो इत्थीणं ठाणाइ सेवित्ता भवइ। ४. नो इत्थीण सेवित्ता भवति---णो इत्थिससत्ताई णो पसुससत्ताइ नो पंडगससत्ताई। इंदियाणि मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निझाइत्ता भवइ । २. णो इत्विणं कहं कहेत्ता भवति। ३. णो इत्थिटाणाई सेवित्ता ५. नो पणीयरसभोई भवई। ६. नो पाणभोयणरस अतिमायं भवति। ४. णो इत्थीणमिदियाई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता आहारइत्ता भवइ । ७. नो इत्थीण पुबरयाइ पुबकीलिआइ सुमरइत्ता निझाइना भवति। ५. णो पणीतरसभोई (भवति?)। ६. णो भवइ। ८. नो सद्दाणुवाई नो ख्वाणुयाई नो गंधाणुवाई नो पाणभोयणस्स अतिमाहारए सया भवति। ७. णो पुव्वरतं पुव्वकीलियं रसाणुवाई नो फासाणुवाई नो सिलोगाणुवाई। नो सायासोक्खपटिबजे सरेत्ता भवति । ८. णो सद्दाणुवाती णो ख्वाणुवाती णो सिलोगाणुवाती यावि भवइ। (भवति?)। E. णो सातसोक्खपडिबद्धे यावि भवति। २. समवायाग में इसके स्थान पर-निग्रंथ स्त्री-समुदाय की उपासना न (ख) समवाओ, समवाय ६ : नव बंभचेरगुत्तीओ पं० सं०-१. नोक रे...ऐसा पाठ है। देखें--पा० टि०१ (ख)। इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि सेवित्ता भवइ। २. नो इत्थीणं कहं कहित्ता Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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