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________________ उत्तरज्झयणाणि ५८८ अध्ययन ३४ :श्लोक ४६-६०टि० २१-२३ प्रज्ञापना में भवनपति देवों की जघन्य स्थिति दस हजार लेस्सा-पदवर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक एक सागर की बताई है। १४७. कति णं भंते! लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! वानव्यंतर देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा—कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा ।। उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम की बताई है। अतः प्रस्तुत श्लोक परिणमणभाव-पदं में जो उत्कृष्ट स्थिति है वह मध्यम आयु वाले भवनपति और १४८. से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए वानव्यंतर देवों की अपेक्षा से है। तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भूज्जो-भुज्जो २१. (श्लोक ४९) परिणमति? इतो आढतं जहा चउत्थुद्देसए तहा भाणियव्यं जाव नीललेश्या का कथन भी सापेक्ष है। यहां जो असंख्यातवां वेरुलियमणिदिट्टतो त्ति ।। भाग कहा गया है वह बृहत्तर असंख्येय भाग गृहीत है। कृष्ण १४६. से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो लेश्या के प्रसंग में असंख्येय भाग छोटा है और यहां वह बड़ा तारूवत्ताए णो तावण्णत्ताए णो तागंधत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासताए भुज्जो-भुज्जो परिणमति? हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा २२. (श्लोक ५२) णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए णो तावण्णत्ताए णो तागंधत्ताए यहां मूलपाट में श्लोक-व्यत्यय है। ५२ वें श्लोक के णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमति।। स्थान पर ५३ वां और ५३ वें के स्थान पर ५२ वा श्लोक होना १५०. से केणठेणं भंते! एवं वुच्चति—कण्हलेस्सा चाहिए। क्योंकि ५१वें श्लोक में आगमकार भवनपति, वाणव्यन्तर, नीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो परिणमति ? ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की तेजोलेश्या के कथन की गोयमा ! आगारभावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए प्रतिज्ञा करते हैं, किन्तु ५२ वें श्लोक में निरूपित तेजोलेश्या वा से सिया कण्हलेस्सा णं सा, णो खलु सा णीललेसा, केवल वैमानिक देवों की अपेक्षा से है, जब कि ५३ वें श्लोक तत्थ गता उस्सक्कति। से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चतिमें प्रतिपादित लेश्या का कथन चारों प्रकार के देवों की अपेक्षा कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो से है। परिणमति।। २३. (श्लोक ६०) १५१. से णूणं भंते ! णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो परिणमति? हंता गोयमा ! प्राणी जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्या में उत्पन्न णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो होता है। इसका तात्पर्य है कि वर्तमान भव का आयुष्य जब परिणमति।। अन्तर्मुहूर्त परिमाण शेष रहता है, उस समय परभव की लेश्या १५२. से केपट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ–णीललेस्सा का परिणाम आरब्ध हो जाता है। वह परिणाम अन्तर्मुहूर्त तक काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो परिणमति? वर्तमान जीव में रहता है और अन्तर्मुहूर्त तक परभव में गोयमा ! आगारभावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए वा उत्पन्न होने के पश्चात् रहता है। दो अन्तर्मुहूर्तों तक लेश्या सिया णीललेस्सा णं सा, णो खलु सा काउलेस्सा, तत्थ गता की अवस्थिति एक सामान्य नियम है। उस्सक्कति 'वा ओसक्कति वा' से तेणठेणं गोयमा। एवं नारक और देवों के लिए कुछ विशेष नियम हैं। दो वुच्चइ–णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव अन्तर्मुहूर्तों का नियम उन पर भी लागू होता है, किन्तु वे जिस भुज्जो-भुज्जो परिणमति।। लेश्या में उत्पन्न होते हैं उस लेश्या के परिणाम उनके आयुष्य १५३. एवं काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेस्सं पर्यन्त रहते हैं। पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं पप्प ।। लेश्या की विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य-प्रज्ञापना, १५४. से गूणं भंते ! सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो पद १७। तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो परिणमति? हंता गोयमा ! श्री भिक्षु आगम विषय कोश पृ० ५५५-५६४। सुक्कलेस्सा पम्हलेसं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो विशेष जानकारी के लिए प्रज्ञापना के मूलपाठ के कुछ परिणमति।। अंश तथा उनकी वृत्ति यहां उद्धृत की जा रही है १. पन्नवणा, ४३१ तथा १६५। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६० : ....बृहत्तरोऽयमसंख्येयभागो गृह्यते। ३. वही, पत्र ६६२ : उक्तं हि प्रज्ञापनायाम्-'जल्लेसाई दव्वाइं आयतित्ता कालं करेति तल्लेसेसु उववज्जइ।' वृत्तिकार ने इसको प्रज्ञापना का पाठ मानकर उद्धृत किया है। प्रज्ञापना में यह पाठ प्राप्त नहीं है। ४. वही, पत्र ६६२ : अन्तर्मुहत्तें गत एव अतिक्रांत एव, तथा अन्तर्मुहूतें शेषके चैव-अवतिष्ठमान एव लेश्याभिः परिणताभिरुपलक्षिता जीवा गच्छन्ति परलोक-भवांतरम् इत्थं चैतन्मृतिकाले भाविभवलेश्याया उत्पत्तिकाले वा अतीतभवलेश्याया अन्तर्मुहूर्त्तमवश्यम्भावात् । ५. वही, पत्र ६६२ : देवनारकाणां स्वस्वलेश्यायाः प्रागुत्तरभवांतर्मुहूर्त द्वयसहितनिजायुःकालं यावद् अवस्थितत्वात् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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