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________________ उत्तरज्झयणाणि ७७. भाणू इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी । केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ।। ७८. उग्गओ खीणसंसारो सव्वण्णू जिणभक्खरो । सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोयमि पाणिणं ।। ७६. साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! || ८०. सारीरमाणसे दुक्खे उद्गतः क्षीणसंसार: सर्वज्ञो जिनभास्करः । स करिष्यत्युद्योत सर्वलोके प्राणिनाम् ।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो में संशयोऽयम् अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम ! || शारीरमानसेदुः बाध्यमानानां प्राणिनाम् । क्षेमं शिवमनाबाधं बज्झमाणाण पाणिणं । खेमं सिवमणाबाहं ठाणं किं मन्मसी ? मुणी ! ।। स्थानं किं मन्यसे ? मुने ! ।। ८१. अत्थि एगं धुवं ठाणं लोगग्गंमि दुरारुहं । जत्थ नत्थि जरा मच्चू वाहिणो वेयणा तहा ।। ८२. ठाणे व इइ के बुत्ते ? केसी गोयममब्बवी । केसिमेवं बुवंतं तु गोयमी इणमब्बवी ।। ८३. निव्वाणं ति अबाहं ति सिद्धी लोगग्गमेव य । खेमं सिवं अणाबाहं जं चरंति महेसिणो ।। ८४. तं ठाणं सासयं वासं लोगग्गंमि दुरारुहं । जं संपत्ता न सोयंति भवोहंतकरा मुणी ।। ८५. साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो । नमो ते संसयाईय ! सव्वसुत्तमहोयही ! | ८६. एवं तु संसए छिन्ने केसी घोरपरक्कमे । अभिवंदित्ता सिरसा गोयमं तु कहायसं । । Jain Education International ३८० भानुश्चेति क उक्तः ? केशी गीतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत् ।। अस्त्येकं ध्रुवं स्थानं कोकाग्रे दुरारोहं । यत्र नास्ति जरा मृत्युः व्याधयो वेदनास्तथा ।। स्थानं चेति किमुक्तं ? केसी गीतममग्रीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्। निर्वाणमित्यबाधमिति सिद्धिर्लोकाग्रमेव च । क्षेमं शिवमनाबाधं यच्चरन्ति महैषिणः ।। तत् स्थानं शाश्वतं वासं लोक दुरारोहम् यत्सम्प्राप्ता न शोचन्ति भवौघान्तकराः मुनयः ।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम् । नमस्तुभ्यं संशयातीत ! सर्वसूत्रमहोदधे ! ।। एवं तु संशये छिन्ने केशी घोरपराक्रमः । अभिवन्द्य शिरसा गौतमं मु महायशसम् अध्ययन २३ : श्लोक ७७-८६ भानु किसे कहा गया है ? - केशी ने गौतम से कहा । केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले जिसका संसार क्षीण हो चुका है, जो सर्वज्ञ है, वह अर्हत्-रूपी भास्कर समूचे लोक के प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ । मुने! तुम शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित होते हुए प्राणियों के लिए क्षेम, शिव और अनाबाध स्थान किसे मानते हो ? लोक के शिखर में एक वैसा शाश्वत स्थान है, जहां पहुंच पाना बहुत कठिन है और जहां नहीं हैजरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना । स्थान किसे कहा गया है ? – केशी ने गौतम से कहा । केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले जो निर्वाण है, जो अवाम, सिद्धि, लोकान, क्षेम, शिव और अनाबाध है, जिसे महान् की एषणा करने वाले प्राप्त करते है--- भव-प्रवाह का अन्त करने वाले मुनि जिसे प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाते हैं, जो लोक के शिखर में शाश्वत रूप से अवस्थित है, जहां पहुंच पाना कठिन है, उसे मैं स्थान कहता हूं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। हे संशयातीत ! हे सर्वसूत्र महोदधि ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं। इस प्रकार संशय दूर होने पर घोर पराक्रम वाले केशी महान् यशस्वी गौतम का शिर से अभिवन्दन कर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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