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________________ टिप्पण अध्ययन ३५ : अनगार-मार्ग-गति १. किवाड सहित (सकवाड) होना। "ये थोड़े किन्तु सुलभ और निर्दोष हैं।" भगवान् द्वारा महात्मा बुद्ध ने किवाड़ वाले कोठों में न रहने को प्रशंसित होने का प्रत्यय, हर समय पेड़ की पत्तियों के विकारों अपनी पूजा का कारण मानने से इनकार किया है। उन्होंने को देखने से अनित्य का ख्याल पैदा होना, शयनासन की कहा है-“उदायी! '० जैसे तैसे शयनासन से सन्तुष्ट, कंजूसी और (नाना) काम जुटे रहने का अभाव, देवताओं के सन्तुष्टता-प्रशंसक ०' इससे यदि मुझे श्रावक ० पूजते ०; तो साथ रहना, अल्पेच्छता आदि के अनुसार वृत्ति। उदायी! मेरे श्रावक वृक्ष-मूलिक (=वृक्ष के नीचे सदा रहने वण्णितो बुद्धसेठेन निस्सयोति च भासितो। वाले), अब्भोकाशिक (अध्यवकाशिक-सदा चौड़े में रहने निवासो पविवित्तस्स रुक्खमूल समो कुतो।। वाला) भी हैं, वह आठ मास (वर्षा के चार मास छोड़) छत के (श्रेष्ठ भगवान बुद्ध द्वारा प्रशंसित और निश्रय कहे गए नीचे नहीं आते। मैं तो उदायी ! कभी-कभी लिपे-पोते एकांत निवास के लिए वृक्षमूल के समान दूसरा क्या है ?) वायु-रहित, किवाड़ खिड़की-बन्द कोठों (=कूटागारों) में भी आवासमच्छेर हरे देवता परिपालिते। विहरता हूं।" पविविते वसन्तो हि रुक्खमूलम्हि सुब्बतो।। २. (श्लोक ६) अभिरत्तानि नीलानि पण्डूदि पतितानि च। बौद्ध-भिक्षुओं के लिए तेरह धुतागों का विधान है। पस्सन्तो तरूपण्णानि निच्चसज पनूदति। उनमें नौवां धुताग वृक्ष-मूलिकांग और ग्यारहवां धुताङ्ग (मठ ‘सम्बन्धी') कंजूसी दूर हो जाती है। देवताओं द्वारा श्मशानिकांग है। विशुद्धि मार्ग में कहा है प्रतिपालित एकांत में वृक्ष के नीचे रहता हुआ, शीलवान् ___ वृक्ष-मूलिकांग भी—“छाये हुए को त्यागता हूं, वृक्ष के (राभक्षु) लाल, नीले और गिरे हुए, पेड़ के पत्तों को देखते, नीचे रहने को ग्रहण करता हूं" इनमें से किसी एक वाक्य से नित्य (होने) के ख्याल को छोड़ देता है। ग्रहण किया होता है। उस वृक्षमूलिक को (संघ--) सीमा के तस्मा हि बुद्धदायज भावनाभिरतालय। वृक्ष, (देवी-देवताओं के) चैत्य पर के वृक्ष, गोंद के पेड़, फले विवित्तं नातिमजेय्य रुक्खमूलं विचक्षणो। हुए पेड़, चमगीदड़ों वाला पेड़, धोंधड़ वाला पेड़, विहार के (इसलिए बुद्ध-दायाद, भावना में लगे रहने के आलय बीच खड़े पेड़-इन पेड़ों को छोड़कर विहार से दूर वाले पेड़ और एकांत वृक्षमूल की बुद्धिमान (भिक्षु) अवहेलना न करे)।' को ग्रहण करना चाहिए। यह इसका विधान है। निदान कथा (जातकट्ठकथा, पृष्ठ १३,१४) में वृक्ष-मूल प्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। उनमें उत्कृष्ट । में रहने के दस गुण बतलाए हैं। रुचि के अनुसार पेड़ ग्रहण करके साफ-सुथरा नहीं करा श्मशानिकांग भी-“श्मशान को नहीं त्यागूंगा, श्मशानिकांग सकता। गिरे हुए पत्तों को पैरों से हटा कर उसे रहना चाहिए। को ग्रहण करता हूं", इनमें से किसी एक वाक्य से ग्रहण किया मध्यम उस स्थान को आए हुए आदमियों से साफ-सुथरा करा होता है। उस श्मशानिक को, जो कि आदमी गांव बसाते हुए सकता है। मृदु को मठ के श्रामणेरों को बुला कर साफ करवा, “यह श्मशान है" मानते हैं, वहां नहीं रहना चाहिए। क्योंकि बराबर करके बालू छिंटवा, चहारदिवारी से घरा बनवा कर, बिना मुर्दा जलाया हुआ (स्थान) श्मशान नहीं होता। जलाने के दरवाजा लगवा रहना चाहिए। पूजा के दिन वृक्षमूलिक को वहां समय से लेकर यदि बारह वर्ष भी छोड़ा गया रहता है, तो न बैठ कर, दूसरी जगह आड़ में बैठना चाहिए। इन तीनों की (वह) श्मशान ही है। (वह) धुतांग छाये हुए (स्थान) में वास करने के क्षण टूट जाता है। उसमें रहने वाले को चंक्रमण, मंडप आदि बनवा, “जान कर छाये हुए (स्थान) में अरुणोदय उगाने पर" । चारपाई-चौकी बिछा कर, पीने के लिए पानी रख धर्म वांचते अंगुत्तर-भाणक कहते हैं। यह भेद (=विनाश) है। हुए नहीं रहना चाहिए। यह धुतांग बहुत कठिन है। इसलिए ___यह गुण है-“वृक्ष मूल वाले शयनासन के सहारे उत्पन्न उपद्रव को मिटाने के लिए संघ-स्थविर (=संघ के बूढ़े प्रव्रज्या है।" इस वाक्य से निश्चय के अनुसार प्रतिपत्ति का भिक्षु) या राज-कर्मचारी को जना कर अप्रमाद के साथ रहना १. मज्झिमनिकाय, २।३।७, पृ० ३०७। २. विशुद्धिमार्ग, भाग १, पृ०७३-७४ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only ste & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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