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________________ उत्तरज्झयणाणि ४. (सिक्खासीले, अहस्सिरे, मम्म) सिक्खासीले- -शिक्षा में रुचि रखने वाला या शिक्षा का अभ्यास करने वाला 'शिक्षाशील' कहलाता है।' अहस्सिरे—जो हास्य न करे। अकारण या कारण उपस्थित होने पर भी जिसका स्वभाव हंसने का न हो उसे 'अहसिता' कहा जाता है। २०० अध्ययन ११ : श्लोक ४-१० टि० ४-१२ गया है । कोई साधु पात्र रंगना नहीं जानता। वैसी स्थिति में दूसरा साधु उसका पात्र रंगने को तैयार है किन्तु वह सोचने लगता है कि मैं इससे अपना पात्र रंगाऊंगा तो मुझे भी इसका काम करना पड़ेगा। इस प्रत्युपकार के भय से वह उससे पात्र नहीं रंगवाता और कहता है मुझे तुमसे पात्र नहीं रंगवाना है। इस तरह मित्रभाव रखने की इच्छा करने वाले का तिरस्कार करता है। मम्मं मर्म का अर्थ है लज्जाजनक, अपवादजनक या निन्दनीय आचरण सम्बन्धी गुप्त बात । ५. (नासीले न विसीले अकोहणे, सच्चरए) , पूर्णिकार ने अशील शब्दे का अर्थ गृहस्थ की भांति आचरण करने वाला और विशील का अर्थ जादू-टोना आदि करने वाला किया है।* वृत्ति में अशील का अर्थ है— चारित्र धर्म से सर्वधा हीन और विशील का अर्थ है-अतिवारी से कलुषित व्रत वाला ।" जो निरपराध या अपराधी पर क्रोध न करे, वह 'अक्रोधन' कहलाता है। चूर्णि के अनुसार जो मृषा न बोले या संयम में रत हो, वह 'सत्यरत' कहलाता है।" ६. बार-बार (अभिक्खणं) बृहद्वृत्ति के अनुसार इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं'अभीक्ष्णं' और 'अभिक्षणं । अभीक्ष्णं का अर्थ बार-बार और अभिक्षण का अर्थ निरंतर है। ७. जो क्रोध को टिकाकर रखता है (पबंध) प्रबंध का अर्थ है—अविच्छेद। बार-बार क्रोध आना और आए हुए क्रोध को टिका कर रखना एक बात नहीं है। इसका वैकल्पिक अर्थ है- विकथाओं में निरंतर लगे रहना। ८. जो मित्रभाव रखने वाले को भी ठुकराता है (मेसिनमाणे वाह) इसका आशय एक व्यावहारिक उदाहरण द्वारा समझाया 9. बृहद्वृत्ति पत्र ३४५: शिक्षायां शीलः स्वभावो यस्य शिक्षां वा शीलयति---अभ्यस्यतीति शिक्षाशीलः द्विविधशिक्षाभ्यासकृद् । २. वही पत्र ३४५ अहसितान सहेतुकमहेतुकं वा हसन्नेवास्ते । ३. वही, पत्र ३४५ 'मर्म' परापभाजनाकारि कुत्सितं जात्यादि । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६६ अशीलो गृहस्थ इव.. विशीलो भूतिकम्मादीहिं । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४५ अशीलः अविद्यमानशीलः, सर्वथा विनष्टचारित्रधर्म ४. इत्यर्थः, विशीलः - विरूपशीलः अतिचारकलुषितव्रत इति यावत् । ६. वही, पत्र ३४५ 'अक्रोधनः' अपराधिन्यनपराधिनि वा न कथंचित् क्रुध्यति । ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ : सच्चरतो ण मुसावादी, संजमरतो वा । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ : अभीक्ष्णं पुनः पुनः, यद् वा क्षणं क्षणमभि अभिक्षणम्-अनवरतम् । ६. वही, पत्र ३४६ प्रबन्धं च प्रकृतत्वात् कोपस्यैवाविच्छेदात्मकम्.... विकथादिषु वाऽविच्छेदेन प्रवर्तनं प्रबन्धः । १०. वहीं, पत्र ३४६ : 'मेत्तिज्जमाणो' त्ति मित्रीय्यमाणोऽपि मित्र मायमरित्वतीप्यमाणो ऽपि अपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात् 'वमति' त्यजति, प्रस्तावान्मित्रयितारं मैत्रीं वा, किमुक्तं भवति ? यदि कश्चिद्धार्मिकतया Jain Education International ९. बुराई करता है (भासद पावगं ) बुराई करता है - इसका तात्पर्य यह है कि सामने मीठा बोलता है और पीछे 'यह दोष का सेवन करता है' इस प्रकार उसका अपवाद करता है।" १०. जो असंबद्ध भाषी है (पइण्णवाई) बृहद्वृत्ति के अनुसार 'पइण्णवाई' के संस्कृत रूप दो बनते हैं— प्रकीर्णवादी और प्रतिज्ञावादी । जो सम्बन्ध रहित बोलता है या पात्र या अपात्र की परीक्षा किए बिना ही श्रुत का रहस्य बता देता है, वह 'प्रकीर्णवादी' कहलाता है। 'यह ऐसे ही है' इस तरह जो ऐकांतिक आग्रहपूर्वक बोलता है, वह 'प्रतिज्ञावादी' कहलाता है।" चूर्णिकार को पहला रूप अभिमत है" और सुखबोधा को दूसरा ।" प्रकरण की दृष्टि से पहला अर्थ ही अधिक संगत है। जार्ल सरपेन्टियर ने पहला अर्थ ही मान्य किया है।" ११. जो अप्रीतिकर है (अवियत्ते) अचियत्त - यह देशी पद है। चूर्णि में इसके दो अर्थ प्राप्त हैं— अदर्शनीय और अप्रीतिकर ।" वृत्ति के अनुसार जिस देखने से या बोलते हुए सुनने से अप्रीति उत्पन्न होती है, वह व्यक्ति अचियत्त- अप्रीतिकर कहलाता है।" १२. जो नम्र व्यवहार करता है (नीयावत्ती ) बृहद्वृत्ति के अनुसार 'नीचवर्ती' के दो अर्थ हैं वति यथा त्वं न वैत्सीत्यहं तव पात्रं लेपयामि, ततोऽसौ प्रत्युपकारभीरुतया प्रतिवक्ति-ममालमेतेन । ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ 'भाषते' वक्ति पापमेव पापकं किमुक्तं भवति ?अग्रतः प्रियं वक्ति पृष्ठतस्तु प्रतिसेवको ऽयमित्यादिकमनाचारमेवाविष्करोति । १२. वही, पत्र ३४६ प्रकीर्णम् इतस्ततो विक्षिप्तम् असम्बद्धमित्यर्थः, वदति-- जल्पतीत्येवंशीलः प्रकीर्णवादी, वस्तुतत्त्वविचारेऽपि यत्किंचनवादीत्यर्थः, अथवा यः पात्रमिदमपात्रमिदमिति वाऽपरीक्ष्यैव कथचिंदधिगतं श्रुतरहस्यं वदतीत्येवंशीलः प्रकीर्णवादी इति, प्रतिज्ञया वा इदमित्थमेव इत्येकान्ताभ्युपगमरूपया वदनशीलः प्रतिज्ञावादी । १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ : अपरिक्खिउं जस्स व तरस व कहेति । १४. सुखबोधा, पत्र १६८ प्रतिज्ञया इत्थमेवेदमित्येकान्ताभ्युपगमरूपया वदनशीलः प्रतिज्ञावादी । १५. The Uttarādhyayana Sutra, p. 320 अप्रिय १६. उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १६६ : अचियत्तो ऽदरिणो वा अथवा.... इत्यर्थः । १७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ अधियत्ते ति अप्रीतिकरः दृश्यमानः सम्भाष्यमाणो वा सर्वस्याप्रीतिमेवोत्पादयति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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