________________
(३६)
१०६ विरक्त पुरुष के लिए शब्द आदि विषय मनोज्ञता या अमनोज्ञता के हेतु नहीं ।
१०७ राग-द्वेषात्मक संकल्प दोष का मूल है, इन्द्रिय-विषय नहीं इस विचार से तृष्णा का क्षय ।
तेतीसवां अध्ययन श्लोक १ अध्ययन का उपक्रम ।
२-३ कर्मों के नाम-निर्देश ।
४-१५ कर्मों के प्रकार ।
१६-१७ एक समय में ग्राह्य सब कर्मों के प्रदेशों का परिमाण । १८ सब जीवों के संग्रह - योग्य पुद्गलों की छहों दिशाओं में चौतीसवां अध्ययन
श्लोक १-२ उपक्रम ।
कर्म - प्रकृति (कर्म की प्रकृतियों का निरूपण)
३ लेश्याओं के नाम-निर्देश ।
४-६ लेश्याओं का वर्ण विचार। १०,१५ लेश्याओं का रस-विचार । १६, १७ लेश्याओं का गंध-विचार । १८, १६ लेश्याओं का स्पर्श-विचार । २१-३२ लेश्याओं के परिणाम ।
लेश्या अध्ययन (कर्म - लेश्या का विस्तार)
उपक्रम ।
२ संग विवेक ।
३ पांच महाव्रतों का नाम-निर्देश ।
४,५ भिक्षु वैसे मकान में न रहे जहां कामराग बढ़ता हो ।
६ भिक्षु श्मशान आदि एकान्त स्थानों में रहे।
७ भिक्षु के रहने का स्थान कैसा हो ?
८ भिक्षु को गृह समारम्भ न करने का निर्देश । ६ गृह समारम्भ के दोष ।
१०, ११ आहार की शुद्धता ।
१०८ वीतराग की कृतकृत्यता । १०६ आयुष्य क्षय होने पर मोक्ष प्राप्ति । ११० मुक्त जीव की कृतार्थता ।
१११ दुःखों से मुक्त होने का मार्ग ।
३३ लेश्याओं के स्थान । ३४-३६ लेश्याओं की स्थिति ।
पैंतीसवां अध्ययन : अनगार मार्ग-गति (अनगार का स्फुट आचार)
श्लोक १
२ लोक और अलोक की परिभाषा ।
३ जीव और अजीव की प्ररूपणा के प्रकार । ४ अजीव के दो प्रकार।
Jain Education International
५, ६ अरूपी अजीव के दस प्रकार ।
७ धर्मास्तिकाय आदि का क्षेत्रतः निरूपण । ८,६ धर्मास्तिकाय आदि का कालतः निरूपण । १०-१४ रूपी पुद्गल के प्रकारों का द्रव्य, क्षेत्र और काल - मान । १५-२० वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से पुद्गल की परिणति । २१ संस्थान की अपेक्षा से पुद्गल की परिणति । २२-४७ पुद्गल के अनेक विकल्प। अजीव विभक्ति का समापन । ४८ जीव के दो प्रकार ।
४६-६७ सिद्धों के प्रकार, अवगाहना, संस्थिति का निरूपण तथा
स्थिति ।
१६- २३ कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति । २४ कर्मों का अनुभाग ।
२५ कर्म-निरोध का उपदेश ।
छत्तीसवां अध्ययन जीवाजीवविभक्ति (जीव और अजीव के विभागों का निरूपण)
श्लोक १ अध्ययन का उपक्रम ।
४०-४३ नारकीय जीवों के लेश्याओं की स्थिति । ४४-४६ तिर्यञ्च और मनुष्य के लेश्याओं की स्थिति । ४७-५५ देवों के लेश्याओं की स्थिति ।
५६ अधर्म लेश्याओं की गति ।
५७ धर्म लेश्याओं की गति ।
५८-६० लेश्या परिणति का उपपात के साथ संबंध ।
६१ अप्रशस्त लेश्याओं का वर्जन और प्रशस्त लेश्याओं के स्वीकार का उपदेश ।
पृ० ५९०-५९६
१२ भिक्षु के लिए अग्नि का समारंभ न करने का विधान । १३ सोने-चांदी की अनाकांक्षा ।
पृ० ५६९-५७६
१४, १५ क्रय-विक्रय भिक्षु के लिए महान् दोष । १६ पिण्ड-पात की एषणा ।
१७ जीवन निर्वाह के लिए भोजन का विधान ।
१८ पूजा, अर्चना और सम्मान के प्रति अनाशंसा-भाव ।
१६ शुक्ल - ध्यान और व्युत्सृष्ट-काय होने का उपदेश । २० अनशन का विधान ।
२१ आश्रव रहित व्यक्ति का परिनिर्वाण ।
सिद्धालय का स्वरूप ।
६८ संसारी जीव के दो प्रकार ।
६६ ७० - ८३
पृ० ५७७-५८९
१०७ १०८ - ११६
स्थावर जीव के तीन मूल भेद ।
पृथ्वीकाय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार ।
८४ ६१ अप्काय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार ।
६२-१०६ वनस्पतिकाय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार । त्रस जीव के तीन भेद ।
For Private & Personal Use Only
पृ० ५९७–६४२
तेजस्काय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार |
११७- १२५ वायुकाय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति,
www.jainelibrary.org