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________________ उत्तरज्झयणाणि हो गया। नगर - जहां किसी प्रकार का कर न लगता हो, उसे 'नगर' कहा जाता है।' अर्थ-शास्त्र में राजधानी के लिए 'नगर' या 'दुर्ग' और साधारण कस्बों के लिए 'ग्राम' शब्द प्रयुक्त हुआ है। किन्तु प्रस्तुत श्लोक में राजधानी का प्रयोग भी हुआ है, इससे जान पड़ता है कि नगर बड़ी बस्तियों का नाम है, भले फिर वे राजधानी हों या न हों। निगम व्यापारियों का गांव; वह बस्ती जहां बहुत व्यापारी रहते हैं। आकर-खान का समीपवर्ती गांव पल्ली-बीहड़ स्थान में होने वाली वस्ती, चोरों का गांव ७. भिक्षाचर्या (भिक्खायरियं) यह बाह्य तप का तीसरा प्रकार है। इसका दूसरा नाम "वृत्ति - संक्षेप" या "वृत्ति परिसंख्यान' है ।' अष्ट प्रकार के गोचराग्रों, सात एषणाओं तथा अन्य विविध प्रकार के अभिग्रहों के द्वारा भिक्षावृत्ति को संक्षिप्त किया जाता है। गोचराग्र के आठ प्रकार हैं (१) पेटा पेटा की भांति चतुष्कोण घूमते हुए (बीच के घरों को छोड़ चारों दिशाओं में समश्रेणि स्थित घरों में जाते हुए), 'मुझे भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहीं' – इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम पेटा है।" (२) अर्द्ध-पेटा – अर्द्ध-पेटा की भांति द्विकोण घूमते हुए ( दो दिशाओं में स्थित गृह-श्रेणि में जाते हुए), 'मुझे भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहीं' – इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम अर्द्ध-पेटा है। (३) गो मूत्रिका (बाएं पार्श्व के घर से ५२० अध्ययन ३० : श्लोक २५ टि० ७ बाएं पार्श्व के घर में जाते हुए), 'मुझे भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहीं' – इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम गो- मूत्रिका है। गो मूत्रिका की तरह बलखाते हुए दाएं पार्श्व के घर और दाएं पार्श्व से १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ नात्र करोऽस्तीति नकरम् । २. वही, पत्र ६०५ : निगमयन्ति तस्मिन्ननेकविधभाण्डानीति निगमःप्रभूततरवणिजां निवासः । ३. वही, पत्र ६०५ : आकुर्वन्ति तस्मिन्नित्याकरो— हिरण्याद्युत्पत्तिस्थानम् । ४. वही, पत्र ६०५ : 'पल्लि' त्ति सुव्यत्ययात् पाल्यन्ते ऽनया दुष्कृतविधायिनो जना इति पल्ली, नैरुक्तो विधिः, वृक्षगहनाद्याश्रितः प्रान्तजननिवासः । ५. समवाओ, समवाय ६ । ६. मूलाराधना, ३।२१७ । ७. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ 'पेडा' पेडिका इव चउकोणा । (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४८ : चउदिसि सेणीभमणे, मज्झे मुक्कंमि भन्नए पेडा । ८. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ 'अपेडा' इमीए चेव अद्धसंठिया घरपरिवाडी। (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४८ : दिसिदुगसंबद्धस्सेणिभिक्खणे अद्धपेडति । ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ : 'गोमुत्तिया' वंकावलिया । (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४७ : वामाओ दाहिणगिहे भिक्खिज्जइ दाहिणाओ वामंमि । Jain Education International (४) पतंग वीथिका — पतिंगा जैसे अनियत क्रम से उड़ता है, वैसे अनियत क्रम से (एक घर से भिक्षा ले फिर कई घर छोड़ फिर किसी घर में) मुझे भिक्षा मिले तो लूं नहीं तो नहींइस प्रकार संकल्प से भिक्षा करने का नाम पतंग-वीथिका है।" (५) शंबूकावर्त्ता — शंख के आवतों की तरह भिक्षाटन करने को शंबूकावर्त्ता कहा जाता है। इसके दो प्रकार हैं(१) आभ्यन्तर शंबूकावर्त्ता और ( २ ) बाह्य शंबूकावर्त्ता । (क) शंख के नाभि क्षेत्र से प्रारम्भ हो बाहर आने वाले आवर्त्त की भांति गांव के भीतरी भाग से भिक्षाटन करते हुए बाहरी भाग से आने को 'आभ्यन्तर शंबूकावर्त्ता' कहा जाता है। (ख) बाहर से भीतर जाने वाले शंख के आवर्त की भांति गांव के बाहरी भाग से भिक्षाटन करते हुए भीतरी भाग में आने को 'बाह्य शंबूकावर्त्ता' कहा जाता है।" स्थानांग वृति के अनुसार (क) बाह्य शंबूकावर्त्ता की व्याख्या है और (ख) आभ्यन्तर शंबूकावर्त्ता की व्याख्या है । ३ किन्तु इन दोनों व्याख्याओं की अपेक्षा पंचाशकवृत्ति की व्याख्या अधिक हृदय स्पर्शी है। उसके अनुसार दक्षिणावर्त शंख की भांति दांई ओर आवर्त्त करते हुए 'भिक्षा मिले तो लूं नहीं तो नहीं' इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम आभ्यन्तर शंबूकावर्त्ता है। इसी प्रकार वामावर्त शंख की भांति बांई ओर आवर्त करते हुए 'भिक्षा मिले तो लूं नहीं तो नहीं' - इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम बाह्य शंबूकावर्त्ता है। ३ - (६) आयतं गत्वा प्रत्यागता-सीधी सरल गली के अन्तिम घर तक जाकर वापिस आते हुए भिक्षा लेने का नाम आयतं गत्वा - प्रत्यागता है । ४ जोए सा गोमुत्ती.. 11 १०. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ 'पयंगविही' अणियया पयंगुड्डाणसरिसा । (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४७ अड्डवियड्डा पयंगविही। ११ (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ 'संबुक्कावट्ट' ति शम्बूकः शङ्खस्तस्यावर्त्तः शम्बूकावर्त्तस्तद्वदावर्त्तो यस्यां सा शम्बूकावर्त्ता, सा च द्विविधा—यतः सम्प्रदायः - 'अभिंतरसंबुक्का बाहिरसंबुक्का य, तत्थ अब्भंतरसंबुक्काए संखनाभिखेत्तोवमाए आगिइए अंतो आढवति बाहिरओ संणियट्टइ, इयरीए विवज्जओ।' (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४६ । स्थानांग, ६६६ वृत्ति, पत्र ३४७ यस्यां क्षेत्रबहिर्भागाच्छङ्खवृत्तत्वगत्याSटन् क्षेत्रमध्यभागमायाति साऽाभ्यन्तरसंबुक्का, यस्यां तु मध्यभागाद् बहिर्याति सा बहिः संबुक्केति । १३. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४६ वृत्ति, पत्र २१७ पञ्चाशकवृत्ती तु शम्बूकावृत्ता --- “ शङ्खवद्वृत्ततागमनं सा च द्विविधा — प्रदक्षिणतो ऽप्रदक्षिणतश्चे” त्युक्तम् । १४. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ अत्रायतं दीर्घं प्राञ्जलमित्यर्थः तथा च सम्प्रदायः- “ तत्थ उज्जुयं गंतूण नियट्टइ” । १२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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