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________________ परीषह-प्रविभक्ति अध्ययन २ : श्लोक ४५ टि० ८२ 74 चौथे बालक का नाम था-वायुकाय। आचार्य के समक्ष चिन्ता न करें। मैं उपाय करूंगी। एक दिन ब्राह्मणी ने अपनी आते ही, आचार्य ने उसे आभूषण देने के लिए कहा। उसने पुत्री से कहा-बेटी! हमारी यह कुल परम्परा है कि कुल में आनाकानी की। आचार्य ने मार डालने की धमकी दी। बालक जन्मी हुई पुत्री का उपभोग पहले यक्ष करता है, फिर उसका बोला-पहले मेरी बाते सुनें, फिर जो मन चाहे करें। भंते! एक विवाह कर दिया जाता है। इस मास की कृष्ण चतुर्दशी को यक्ष युवक था। वह शक्तिसम्पन्न और शरीर-संपदा से युक्त था। आएगा। तू उसको नाराज मत करना। उस समय प्रकाश मत उसे वायु का रोग हुआ। शीतल वायु भी उसे पीड़ित करने लगी। रखना। लड़की के मन में यक्ष का कुतूहल छा गया। चतुर्दशी का जिस वायु के सहारे प्राणी जीवित रहते हैं वही वायु प्राण-हरण दिन। रात में उसने दीपक पर ढक्कन दे दिया। घोर अंधकार। भी कर लेती है। जो प्राणदाता है, वह प्राणहर्ता भी हो जाता है। यक्ष का प्रतिरूप वह पिता ब्राह्मण आया और रात भर लड़की ठीक ही कहा है के साथ रतिक्रीड़ा कर वहीं सो गया। लड़की का कुतूहल शान्त जिट्ठासाढेसु माणेसु, जो सुहोवाइ मारुओ। नहीं हुआ था। वह जाग रही थी। उसने दीपक से ढक्कन तेण मे भज्जए अंगं, जायं सरणओ भयं। उठाया। उसने आपने पास सोए पिता को देखा। उसने सोचा, जेण जीवंति सत्ताणि, निराहमि अणंतए।। जो कुछ होना है, होने दो। इनके साथ भोग भोगूं। फिर दोनों तेण मे भज्जए अंगं, जायं सरणओ भयं।। रतिक्रीड़ा में संलग्न हो गए। सूर्योदय हो गया। पर वे जागृत आचार्य ने सुना, गहने अपने पात्र में रखे और उसे नहीं हुए। ब्राह्मणी ने जगाने के लिए कुछ गीत कहा। उसके जीवित ही छोड़ दिया। प्रत्युत्तर में लड़की ने कहा-मां! तूने ही तो मुझे शिक्षा देते हुए पांचवां बालक था-वनस्पतिकाय। उसने कहा-भंते! कहा था-बेटी! आए हुए यक्ष को मत ठुकराना। मैंने वैसे ही जंगल में एक घना वृक्ष था। उस वृक्ष पर अनेक पक्षी आकर किया। अब पिता का यक्ष द्वारा हरण कर लिया गया है। तुम विश्राम करते थे। वह पक्षियों का आवास-स्थान था। पक्षियों ने दूसरे ब्राह्मण को खोजो। अपने घोंसले बना रखे थे और उन घोंसलों में उनके बच्चे ब्राह्मणी बोलीपलपुष रहे थे। एक बार उसी वृक्ष के पास से एक बेल ऊपर नवमास कुच्छीइ धालिया, पासवणे पुलिसे य महिए। उठी और पनपने लगी। धीरे-धीरे उस वल्ली ने सारे वृक्ष को धूया मे गेहिए हडे सलणए असलणए य मे जायए।। आच्छादित कर दिया। वह वल्ली ऊपर तक बढ़ गई। एक दिन जिस लड़की को मैंने नी मास तक गर्भ में रखा, उसका एक सर्प उस वल्ली के साहरे ऊपर चढ़ा और घोंसलों में स्थित मल-मूत्र साफ किया, आज उसी पुत्री ने मेरे पति का हरण कर सभी बच्चों को खा डाला। भंते! कैसा अन्याय! जो वृक्ष लिया। शरण अशरण बन गया। अभयस्थान था, वही वल्ली के कारण त्रासदायी बन गया- एक बार एक ब्राह्मण ने तालाब बनाया और उसके निकट जाव वुच्छं सुहं वुच्छ, पादवे निरुवहवे। एक मंदिर और बगीचा बना दिया। वहां यज्ञ होता था और यज्ञ मूलाउ उठ्ठिया वल्ली, जायं सरणओ भयं।। में बकरे मारे जाते थे। वह ब्राह्मण मरा और वहीं बकरा बना। आचार्य ने उसके आभूषण ले लिए और उसको छोड़ उसका पुत्र उसे उसी देवालय में बलि देने ले गया। उसे दिया। जातिस्मृति हुई। वह अपनी भाषा में बुड़बुड़ाने लगा। उसने छठे बालक का नाम था-त्रसकाय। आचार्य ने उसे सोचा-ओह! मैंने ही तो देव मंदिर बनाया और मैंने ही यह देखा। ज्यों ही आचार्य उसके आभूषण उतारने लगे, वह बोला- यज्ञ प्रवर्तित किया। वह कांप रहा था। एक ज्ञानी मुनि ने देखा। गुरुवर्य! यह आप क्या कर रहे हैं? मैं तो आपके शरणागत हूं। मुनि ने कुछ कहा और वह चुप हो गया। ब्राह्मण ने देखा और आप मुझे मारें नहीं। मेरी बात सुनें-एक नगर था। वहां का मुनि से पूछा। उसने कहा—वत्स! यह तेरा पिता है। उसने राजा, पुरोहित और कोतवाल-ये तीनों चोर थे। ये नगर को पूछा-इसकी पहचान क्या है? मुनि बोले-वत्स! यह तुम दोनों लूटते। सारी जनता त्रस्त थी। भंते! ये तीनों रक्षक होते हैं, पर ने जहां जमीन में धन गाड़ा है, वह यह जानता है। बकरा उसी भक्षक बन गए। ठीक ही कहा है-शरण भी भय देने वाली हो स्थान पर गया और अपने खुरों से पृथ्वी पर प्रहार करने लगा। जाती है। लड़का जानता था। बकरे को मुक्त कर दिया। वह साधु के जत्थ राया सयं चोरो, भंडिओ या पुरोहिओ। चरणों में लुढ़क गया। दिसं भयह नायरिया! जायं सरणओ भयं।। उस ब्राह्मण ने यज्ञ और मंदिर को शरण मान कर उनका भंते! एक बात और सुनें निर्माण किया था, पर वे भी अशरण ही निकले। एक ब्राह्मण था। उसकी पुत्री अत्यन्त रूपवती थी। उसने बालक त्रसकाय के गहने लेकर, आर्य आषाढ़ आगे चले। यौवन में पदार्पण किया। पिता उस पुत्री में आसक्त हो गया। देव ने सोचा, आचार्य चारित्र से शून्य हो गए हैं, अब देखू तो सदा उसी का चिंतन करते-करते उसका शरीर सूख गया। सही कि इनमें सम्यक्त्व है या नहीं? ब्राह्मणी ने पूछा। उसने सारी बात बता दी। ब्राह्मणी बोली--आप आचार्य आषाढ़ छहों बच्चों के आभूषण लेकर आगे चले। Jain Education Intemational Education Interational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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