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________________ उत्तरज्झयणाणि २६ अध्ययन १ : श्लोक ४४-४६ टि० ६७-७३ २. धर्म्यजीतं---धर्म के अनुरूप जीत व्यवहार। ज्ञान आर्थिक कहलाता है। यह श्रुतज्ञान का विशेषण है। प्रथम अर्थ में मुनि-धर्म के दस भेदों से समन्वित ७१. पूज्यशास्त्र (पुज्जसत्थे) व्यवहार धर्मार्जित कहलाता है। दूसरे अर्थ में व्यवहार के चूर्णिकार ने इसका अर्थ पूज्यशासित किया है। आगम, धारणा आदि पांच भेदों में से 'जीत' व्यवहार को मुख्य बृहद्वृत्तिकार ने इसके तीन संस्कृत रूप प्रस्तुत कर माना गया है। उनके भिन्न-भिन्न अर्थ किए हैंप्रस्तुत प्रसंग में 'धर्मार्जित' अर्थ अधिक उपयुक्त १. पूज्यशास्त्र--जिसके शास्त्रीय ज्ञान की समस्त जनता लगता है। पूजा करती है। प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चरण में 'तत्' शब्द का प्रयोग है। २. पूज्यशास्ता—जिसके गुरु सभी के पूजनीय हैं अथवा यत् और तत् का नित्य सम्बन्ध होता है। इस आधार पर जो अपनी वृत्तियों से गुरु की पूजा में विशेष निमित्त शान्त्याचार्य ने 'धम्मज्जिय', 'ववहारं' और 'बुद्धेहायरियं'–इन बनता है। तीन शब्दों की द्वितीया विभक्ति के स्थान में प्रथमा विभक्ति भी ३. पूज्यशस्त--जो पूज्य और कल्याणकारी है। मानी है। इन तीनों में पहला अर्थ ही उपयुक्त है। नीति का ६७. कार्य (किच्चाई) वाक्य है—'शास्त्रं भारोऽविवेकिनाम्'-अविवेकी व्यक्ति के सभी व्याख्याकारों ने इसका अर्थ 'कृत्यानि'-कार्य किया लिए शास्त्र भाररूप होता है अथवा विवेक-विकल व्यक्तियों है। प्राचीन आदर्शों में यही पाठ प्राप्त होता है, किन्तु प्रस्तुत का शास्त्र या कथन भारभूत होता है। जो विवेकी होता है, प्रसंग में विभक्ति-व्यत्यय के आधार पर 'किच्चाणं' पाठ माना विनीत होता है, उसी का शास्त्रज्ञान सारभूत होता है, पूजनीय जाए तो इसका अर्थ होगा-आचार्य का। पूर्ववर्ती और पश्चात्वर्ती होता है। श्लोक में 'आयरियस्स' और 'किच्चाणं' पाठ प्राप्त है। ७२. उसके सारे संशय मिट जाते हैं (सुविणीयसंसए) ६८. प्रसन्न होते हैं (पसीयन्ति) बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त हैं - इसका अर्थ है प्रसन्न होना। प्रश्न होता है कि क्या १. सुविनीतसंशय-जिसकी सारी जिज्ञासाएं या संशय आचार्य प्रसन्न होने पर स्वर्ग की साक्षात् प्राप्ति कराते हैं? क्या मिट गए हैं। वे मोक्ष की उपलब्धि कराते हैं? क्या वे इच्छित वरदान देते हैं? २. सुविनीतसंसत्क-जिसकी परिषद् सुविनीत है। इसके उत्तर में कहा गया कि वे स्वर्ग आदि की उपलब्धि नहीं ७३. कर्मसम्पदा (दसविध सामाचारी) से सम्पन्न करा सकते, पर वे मोक्ष के हेतुभूत श्रुतज्ञान की प्राप्ति अवश्य (कम्मसंपया) कराते हैं। प्राचीन काल में क्रिया की उपसम्पदा के लिए साधुओं की ६९. प्रसन्न होकर (प्रसन्ना) विशेष नियुक्ति होती थी। वे साधुओं को दसविध सामाचारी प्रसाद या प्रसन्नता का अर्थ चित्त की निर्मलता से का प्रशिक्षण देते और उसकी पालना कराने का ध्यान रखते किया जाने वाला अनुग्रह है। इसका सम्बन्ध हर्ष से नहीं है। थे। चर्णि में 'कर्मसम्पदा' का अर्थ 'योगज विभूति सम्पन्न' इस संदर्भ में 'अप्पाणं विप्पसायए'-आचारांग का यह किया है। सूत्र मननीय है। अध्यात्म का प्रसाद निर्विचार की अवस्था बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ किए गए हैं—सामाचारी से में उपलब्ध है। महर्षि पतंजलि का अभिमत भी यहां सम्पन्न और योगज विभूति से सम्पन्न।" उल्लेखनीय है। चूर्णिकार और बृहद्वृत्तिकार ने नागार्जुनीयास्तु पठन्ति के ७०. मोक्ष के हेतुभूत (अट्ठियं) अंतर्गत इसका पाठान्तर 'मणिच्छियं संपयमुत्तमं गयत्ति' दिया है। यहां 'अर्थ' शब्द मोक्षवाची है। मोक्ष की प्राप्ति का हेतुभूत यहां संपद् का अथ है-यथाख्यातचारित्ररूप सम्पदा।२ १. बृहद्वृत्ति; पत्र ६४। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४३। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ६५। (ग) सुखबोथा, पत्र १३। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४४। ४. आयारो, ३५५।। ५. पातंजलयोगदर्शन, १४७ : निर्विचारवैशारोऽध्यात्मप्रसादः। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५ : अर्यत इत्यों-मोक्षः स प्रयोजनमस्येत्यार्थिक। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४४ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६। ६. बृहद्वृत्ति पत्र ६६ : सुष्टु-अतिशयेन विनीत-अपनीतः प्रसादितगुरुणैव शास्त्रपरमार्थसमर्पणेन संशयो- दोलायमानमानसात्मकोस्येति, सुविनीतसंशयः। सुविनीता वा संसत्-परिषदस्येति सुविनीतसंसत्कः। विनीतस्य हि स्वयमतिशयविनीतव परिषद् भवति। १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४४ : अक्खीणमहाणसीयादिलखिजुत्तो। १२. बृहवृत्ति, पत्र ६६ : कर्म-क्रिया दशविधचक्रवालसामाचारीप्रभृति रितिकर्तव्यता तस्याः सम्पत्- सम्पन्नता तया, लक्षणे तृतीया, ततः कर्मसम्पदोपलक्षितस्तिष्ठतीति सम्बन्ध,.....'कर्म-सम्पदा' अत्यनुष्ठान माहात्म्यसमुपन्नपुलाकादिलब्धिसम्पत्त्या। १२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४५। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ६६। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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