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________________ उत्तराध्ययन सूत्र में अनेक देशों तथा नगरों का भिन्न-भिन्न स्थलों में निर्देश हुआ है। ढाई हजार वर्ष की इस लम्बी कालावधि में कई देशों और नगरों के नाम परिवर्तित हुए, कई मूलतः नष्ट हो गए और कई आज भी उसी नाम से प्रसिद्ध हैं। हमें उन सभी का अध्ययन प्राचीन प्रतिबिम्ब में करना है और वर्तमान में उनकी जो स्थिति है, उसे भी यथासाध्य प्रस्तुत करना है। जो नगर उस समय समृद्ध थे, वे आज खण्डहर मात्र रह गए हैं। पुराने नगर मिटते गए, नए उदय में आते गए। कई नगरों की बहुत छानबीन हुई है परन्तु आज भी ऐसे अनेक नगर हैं जिनकी छानबीन आवश्यक लगती है। आगम के व्याख्या -ग्रन्थों में तथा अन्यान्य जैन रचनाओं में बहुत कुछ सामग्री विकीर्ण पड़ी हैं। आवश्यकता है कि उनमें भूगोल सम्बन्धी सारी सामग्री एकत्र संकलित हो । उत्तराध्ययन में आये हुए देश व नगर (१) मिथिला (६४) (२) कम्बोज (1919६) (३) हस्तिनापुर ( १३ 19 ) (४) कम्पिल्ल ( १३ ।२; १८1१ ) (५) पुरिमताल ( १३ ।२ ) (६) दशार्ण (१३।६) (७) काशी (१३।६) (८) पाञ्चाल (१३ ।२६; १८ ।४५) (E) इषुकार नगर ( १४19) (१०) कलिंग (१८१४५) परिशिष्ट ५ भौगोलिक परिचय (२१) श्रावस्ती ( २३।३) (११) विदेह ( १८ ।४५) (२२) वाणारसी ( २५1१३) विदेह और मिथिला — विदेह राज्य की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गंडकी और पूर्व में महा नदी तक थी। जातक के अनुसार इस राष्ट्र का विस्तार तीन सौ योजन था।' इसमें सोलह हजार गांव थे।* विक्रम की चौथी - पांचवीं शताब्दी के बाद इसका नाम 'तीरहुत' पड़ा, जिसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। विक्रम की १४ वीं शताब्दी में रचित ' विविध तीर्थकल्प' में इसे 'तीरहुत्ति' नाम से पहचाना है।' इसी का अपभ्रष्ट रूप 'तिरहुत' आज भी प्रचलित है। (१२) गान्धार (१८४५) (१३) सौवीर (१८४७) (१४) सुग्रीव नगर (१६ 19 ) (१५) मगध (२०1१ ) (१६) कोशाम्बी (२०१८) (१७) चम्पा (२१19) (१८) पिहुंड (२१1३) (१६) सोरियपुर ( २२ ।१ ) (२०) द्वारका ( २२।२७) १. सुरुचि जातक ( सं ४८६), भाग ४, पृ० ५२१-५२२ । २. जातक ( सं ४०६), भाग ४, पृ० २७ । ३. विविध तीर्थकल्प, पृ० ३२ भण्णई। ४. विविध तीर्थकल्प, पृ० ३२ । ५. दी एन्शियन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया पृ० ७१८ । ६. ७. विविध तीर्थकल्प, पृ० ३२ । जातक सं० ४८६, भाग ४, पृ० ५२१-५२२ । Jain Education International संपइकाले 'तीरहुत्ति देसो त्ति यह एक समृद्ध राष्ट्र था। यहां के प्रत्येक घर 'कदली-वन' से सुशोभित था । खीर यहां का प्रिय भोजन माना जाता था । स्थान-स्थान पर वापी, कूप और तालाब मिलते थे। यहां की सामान्य जनता भी संस्कृत में विशारद थी। यहां के अनेक लोग धर्म-शास्त्रों में निपुण होते थे।" वर्तमान में नेपाल की सीमा के अन्तर्गत (जहां मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिले मिलते हैं) छोटे नगर 'जनकपुर' को प्राचीन मिथिला कहा जाता है। सुरुचि जातक से मिथिला के विस्तार का पता लगता है। एक बार बनारस के राजा ने ऐसा निश्चय किया कि वह अपनी कन्या का विवाह एक ऐसे राजपुत्र से करेगा जो एक पत्नी व्रत धारण करेगा। मिथिला के राजकुमार सुरुचि के साथ विवाह की बातचीत चल रही थी। एक पत्नी व्रत की बात सुन कर वहां के मन्त्रियों ने कहा - 'मिथिला का विस्तार सात योजन है। समूचे राष्ट्र का विस्तार तीन सौ योजन है। हमारा राज्य बहुत बड़ा है। ऐसे राज्य में राजा के अन्तःपुर में सोलह हजार रानियां अवश्य होनी चाहिए।" मिथिला का दूसरा नाम 'जनकपुरी' था। जिनप्रभ सूरि के समय यह 'जगती' (प्रा० जगई) नाम से प्रसिद्ध थी। इसके पास ही महाराज जनक के भाई 'कनक' का निवास-स्थान 'कनकपुर' बसा हुआ था ।" यहां जैन श्रमणों की एक शाखा ' मैथिलिया' का उद्भव हुआ था।" भगवान् महावीर ने यहां छह चातुर्मास बिताए।" आठवें गणधर अकंपित की यह जन्म भूमि थी। प्रत्येक बुद्ध नमि को कङ्कण की ध्वनि से यहीं वैराग्य हुआ था। बाणगंगा और गंडक - ये दोनों नदियां इस नगर को परिवेष्टित कर बहती थी।" चौथे निहूनव अश्वमित्र ने वीर निर्वाण के २२० वर्ष पश्चात् 'सामुच्छेदिक वाद' का प्रवर्तन यहीं से किया था। दशपूर्वधर आर्य महागिरि का यह प्रमुख विहार क्षेत्र था । २ जैन आगमों में उल्लिखित दस राजधानियों में मिथिला का नाम है।" कम्बोज - यह जनपद गान्धार के पश्चिम का प्रदेश था।" डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी ने इसे काबुली नदी के तट पर माना है। कुछ इसे ६. ८. कल्पसूत्र, सूत्र २१३, पृ० ६४ । कल्पसूत्र, सूत्र १२२, पृ० ४१ । १०. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा ६४४ । ११. वही, गाथा ७८२ । १२. आवश्यक भाष्य, गाथा १३१ । १३. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा ७८२ । १४. ठाणं, १०।२७ । १५. अशोक ( गायकवाड लेक्चर्स), पृ० १६८, पद संकेत १ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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