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________________ पंचमं अज्झयणं : पांचवां अध्ययन अकाममरणिज्जं : अकाम-मरणीय हिन्दी अनुवाद इस महा प्रवाह वाले दुस्तर संसार-समुद्र से कई तिर गए। उसमें एक महाप्रज्ञ (महावीर) ने इस प्रश्न का व्याकरण किया। संस्कृत छाया अर्णवे महौधे एकस्तीर्णो दुरुत्तरां तत्रैको महाप्रज्ञः इदं पृष्टमुदाहरेत्।। स्त इमे च द्वे स्थाने आख्याते मारणान्तिके। अकाममरणं चैव सकाममरणं तथा।। मृत्यु के दो स्थान कथित हैं-अकाम-मरण और सकाम-मरण। बाल जीवों के अकाम-मरण बार-बार होता है। पण्डितों के सकाम-मरण उत्कर्षतः एक बार होता महावीर ने उन दो स्थानों में पहला स्थान यह कहा है, जैसे कामासक्त बाल-जीव बहुत क्रूर-कर्म करता १. अण्णवंसि महोहंसि, एगे तिण्णे दुरुत्तरं। एत्थ एगे महापन्ने, इमं पट्ठमुदाहरे।। २. संतिमे य दुवे ठाणा, अक्खाया मारणंतिया। अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा।। ३. बालाणं अकामं तु, मरणं असई भवे। पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सइं भवे।। ४. तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं। कामगिद्धे जहा बाले, भिसं कूराइं कुव्वई ।। ५. जे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई। न मे दिठे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई।। ६. हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अस्थि वा नत्थि वा पुणो? ।। ७. जणेण सद्धिं होक्खामि, इइ बाले पगब्भई। कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई।। ८. ओ से दंडं समारभई, तसेसु थावरेसु य। अट्ठाए य अणट्ठाए, भूयग्गामं विहिंसई ।। बालानामकामं तु मरणमसकृद् भवेत्। पण्डितानां सकामं तु उत्कर्षेण सकृद् भवेत्।। तत्रेदं प्रथम स्थानं महावीरेण देशितम्। कामगृद्धो यथा बालो भृशं क्रूराणि करोति।। यो गृद्धः कामभोगेषु एकः कूटाय गच्छति न मया दृष्ट: परो लोकः चक्षुर्दृष्टेयं रतिः।। हस्तागता इमे कामाः कालिका येऽनागताः। को जानाति परो लोकः अस्ति वा नास्ति वा पुनः ?।। जनेन सार्धं भविष्यामि इति बालः प्रगल्भते। कामभोगानुरागेण क्लेशं सम्प्रतिपद्यते।। जो कोई कामभोगों में आसक्त होता है, उसकी गति मिथ्या भाषण की ओर हो जाती है। वह कहता है-- परलोक तो मैंने देखा नहीं, यह रति (आनन्द) तो चक्षु-दृष्ट है-आंखों के सामने है। ये कामभोग हाथ में आए हुए हैं। भविष्य में होने वाले संदिग्ध हैं। कौन जानता है-परलोक है या नहीं? "मैं लोक समुदाय के साथ रहूंगा" (जो गति उनकी होगी वही मेरी)-ऐसा मानकर बाल-अज्ञानी मनुष्य धृष्ट बन जाता है। वह काम-भोग के अनुराग से क्लेश'२ (संक्लिष्ट परिणाम) को प्राप्त करता है। फिर वह त्रस तथा स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है और प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही प्राणी-समूह की" हिंसा करता है। ततः स दण्डं समारभते त्रसेषु स्थावरेषु च। अर्थाय चानाय भूतग्रामं विहिनस्ति।। dain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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