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उत्तरज्झयणाणि
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१. एकत्व — प्रत्येक स्कन्ध के परमाणु भिन्न-भिन्न होते हैं, फिर भी उनके संघात में एकत्व की अनुभूति होती है, यह एकत्व लक्षण है। जैसे— प्रत्येक घट के परमाणु पृथक्-पृथक् होते हैं, परन्तु 'यह घट है' यह एकत्व का वाचक बनता है।
१.
पृथक्त्व -- 'यह इससे पृथक् है' इस अनुभूति का हेतु पर्याय का पृथक्त्व लक्षण है।
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३. संख्या – एक, दो, तीन आदि की प्रतीति का हेतुभूत
२.
२.
५. संयोग — दो वस्तुओं का संयोग — इस प्रकार के व्यपदेश का हेतुभूत पर्याय
६. विभाग - 'यह इससे विभक्त है' इस बुद्धि का हेतुभूत पर्याय ।
पृथक्त्व और विभाग—एक नहीं है। विभाग संयोग की उत्तरकालीन पर्याय है और पृथक्त्व दो वस्तुओं में भेद करने वाला पर्याय है, जैसे—घट और पट दो अंगुलियों को मिलाया । यह संयोग है। उन्हें अलग किया। यह विभाग है। घट और पट में मूलतः भिन्नता है, इसलिए उनमें पृथक्त्व पर्याय है, विभाग पर्याय नहीं ।"
वैशेषिक दर्शन में गुण के चौवीस प्रकार माने हैं। उनमें संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग - ये पांच गुण हैं। इनकी परिभाषा इस प्रकार है। -
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१. संख्या---' एकत्वादिव्यवहारहेतुः संख्या' – जिस गुण के कारण एक-दो आदि शब्दों का व्यवहार किया जाता है, उसे संख्या कहते हैं। २. परिमाण -- ' मानव्यवहारकारणं परिमाणम्' जिस गुण के आधार पर मान किया जाता है, उसे परिमाण नौ तत्त्व तथा उनके भेद-प्रभेद
एकेन्द्रिय
पर्याय |
४. संस्थान —-आकार - विशेष में संस्थित होना। यह वर्तुल १६. ( श्लोक १४ )
है— इस बुद्धि का हेतुभूत पर्याय ।
संसारी
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प्रत्येक
द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय
वृहद्वृत्ति पत्र ५६२ ।
भारतीय दर्शन परिचय, खंड २, पृ० ६६-७०।
पंचेन्द्रिय
अध्ययन २८ : श्लोक १४ टि० ५६
कहते हैं।
३. पृथक्त्व — 'पृथग्व्यवहारकारणं पृथक्त्वम्' - 'यह उससे अलग है'-ऐसा ज्ञान जिस आधार पर होता है, उसे पृथक्त्व कहते हैं।
४. संयोग संयुक्तव्यवहारहेतुः संयोगः ''यह पदार्थ उसके साथ संयुक्त है'--ऐसा प्रयोग जिस आधार पर होता है, वह संयोग है ।
५. विभाग - 'संयोगनाशको गुणो विभागः ' - जिसके द्वारा संयोग का नाश होता है, उसे विभाग कहते हैं।
स्थानांग में तथ्य के स्थान पर 'सद्भावपदार्थ' शब्द का प्रयोग हुआ है। तथ्य पदार्थ और तत्त्व-ये सव पर्यायवाची हैं। वृत्तिकार ने तथ्य का अर्थ अवितथ किया है। अवितथ वे होते हैं जिनका अस्तित्व वास्तविक होता है। ये नौ तथ्य काल्पनिक नहीं हैं, किंतु वास्तविक हैं।"
इस श्लोक में नौ तत्त्वों का उल्लेख हुआ है । वस्तुवृत्या तत्त्व दो ही हैं --- ( १ ) जीव और (२) अजीव ।
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नौ तत्त्व इन दो विभागों में समाविष्ट हो जाते हैं। यथा जीव, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष जीव में। अजीव, पुण्य, पाप और बन्ध-अजीव में।
आस्रव आदि आत्मा के ही विशेष परिणाम हैं और पुण्य, पाप आदि पौद्गलिक कर्म अजीव के ही विशेष परिणाम हैं। जिस प्रकार लोक की व्यवस्था के लिए छह द्रव्य आवश्यक हैं, उसी प्रकार आत्मा के आरोह और अवरोह को जानने के लिए नौ तत्त्व उपयोगी हैं। इनके बिना आत्मा के विकास या हास की प्रक्रिया बुद्धिगम्य नहीं हो सकती ।
दिगम्बर-ग्रंथों में नौ तत्त्वों के स्थान पर सात तत्त्व माने गए हैं। पुण्य-पाप को बंध के अंतर्गत माना गया है। दोनों मान्यताएं आपेक्षिक हैं, उनमें स्वरूप भेद कुछ भी नहीं है ।
जीव
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साधारण
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एकेन्द्रिय (वनस्पति)
३. ठाणं, ६ १६
४.
बृहद्वृत्ति, पत्र ५६२ तथ्याः अवितथाः निरुपचरितवृत्तयः ।
मुक्त
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