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________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४५३ अध्ययन २८ : श्लोक १३ टि० १४, १५ पदिगलिक है।' वह पुद्गल का एक पर्याय है। वैद्यक शास्त्र में १४. छाया (छाया) ii अन्धकार को स्वतन्त्र मान कर उसके गुण का उल्लेख प्रत्येक स्थूल पौद्गलिक पदार्थ चय-उपचयधर्मक और किया है। अन्धकार समस्त रोगों को करने वाला होता है। रश्मिवान होता है। इसका तात्पर्य है कि पौद्गलिक वस्तु का अन्धकार भयावह, तिक्त और दृष्टि के तेज का आवारक होता प्रति समय चय-उपचय होता रहता है और उसमें से तदाकार है। वैयाकरणों में अंधकार को अणुरूप माना है। कई अन्य रश्मियां निकलती रहती हैं। यथायोग्य निमित्त मिलने पर ये दार्शनिक भी अंधकार को द्रव्य मानते हैं। रश्मियां प्रतिबिम्बित होती हैं। इस प्रतिविम्ब को 'छाया' कहते मध्वाचार्य ने अंधकार को स्वतंत्र द्रव्य माना है। वे कहते हैं। हैं यह तेज का अभाव नहीं है। यह प्रकाश का नाशक है। छाया के दो प्रकार हैं-(१) तवर्णादिविकार और नील रूप तथा चलन रूप क्रिया के आश्रय होने के कारण (२) प्रतिबिम्ब। दर्पण आदि स्वच्छ पदार्थों में जो ज्यों का त्यों 'अन्धकार' मूर्त द्रव्य है।' आकार देखा जाता है, उसे तद्वर्णादिविकार छाया कहते हैं अंधकार जड़ प्रकति रूप उपादान से उत्पन्न होता है और अन्य द्रव्यों पर अस्पष्ट प्रतिविम्ब मात्र पडना प्रतिबिम्ब और वह इतना घनीभूत हो जाता है कि दूसरे कठोर द्रव्य के रूप छाया है। समान वह भी हथियार से काटा जाता है। महाभारत के युद्ध मीमांसाकार यह मानते हैं-दर्पण में छाया नहीं पड़ती, में जब सर्य चमक रहा था, उसी समय श्रीकृष्ण ने अंधकार किन्त नेत्र की किरणें दर्पण से टकरा कर वापिस आती हैं को उत्पन्न किया। भाव रूप द्रव्य होने के कारण ही ब्रह्मा ने और अपने मुख को देखती हैं। इसका पान किया था। स्वतन्त्र रूप से इसकी उपलब्धि लोगों राजवल्लभकोष (५।२२) में छाया दाहश्रमस्वेदहरा को होती है और वह अन्य वस्तुओं को ढांक देता है, इसलिए मधरशीतला' कहा गया है। यही बात राजनिघण्टुकोष में भी इसका भाव रूप होना निश्चित है। कही गई है। कुमारिल भट्ट ने अंधकार को 'अभावात्मक' माना है।" न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका (पृ० ३४५) में छाया को प में नैयायिक, वैशेषिक और प्रभाकर दर्शन-प्रणाली 'अभावरूप' माना गया है। विशेष विवरण के लिए देखिएमें अंधकार को अभावात्मक माना गया है। जैन, भर्तृहरि, भाट्ट न्याय-कुमुदचन्द्र, पृ०६६७-६७२। और सांख्य-दर्शन उसे भावात्मक मानते हैं। आयुर्वेद-शास्त्र कुमारिल भट्ट प्रतिबिम्ब को अभावरूप मानते हैं।" सांख्य से प्रभावित है, इसलिए उसके प्रणेताओं ने अंधकार को १५. (श्लोक १३) भावात्मक माना है। विज्ञान में मानी जाने वाली इन्ट्रा अल्ट्रा प्रस्तुत श्लोक में पर्याय के छह लक्षण बतलाए गए हैं। रेज (Intra ultra rays) और अंधकार में कुछ साम्य संभव है। उनकी व्याख्या इस प्रकार है १. (क) स्याद्वादमंजरी (कारिका ५) : न च तमसः पीदर्गालकत्वमसिन्द्रम, (घ) प्रशस्तपाद भाष्य की व्योमवती टीका, पृ०४०। चाक्षुषत्वाऽन्यथानुपपत्तेः प्रदीपालोकवत्...रूपवत्त्वाच्च स्पर्शवत्त्वमपि (ड) स्याद्वादरत्नाकर, पृ०८५१-८५५। प्रतीयते शीतस्पर्शप्रत्ययजनकत्वात्। ७. मध्य सिद्धांतसार पृ०६०। (ख) रत्नाकरावतारिका, पृ०६६: तमः स्पर्शवत्, रुपवत्वात, पृथिवीवत् ८. वही, पृ०६१। न च रूपवत्वमसिद्ध अंधकारः कृष्णोयमिति कृष्णाकारप्रतिभासात्। ६. पदार्थसंग्रह, पृ० ६२।। २. द्रव्यसंग्रह, गाथा १६ । १०. वही, पृ० ६११ ३. राजनिघण्टुकोष, सत्वादिरेकविंशवर्गः, ३८ : ११. मीमांसा श्लोकवार्तिक न्यायरत्नाकराख्या टीका, पृ० ७४० : आतपः कटुकोरुक्षः, छाया मधुरशीतला। किमिदं तमो नाम? द्रव्यगुर्णानष्यत्तिवैधाद् अभावस्तमः इति। त्रिदोषशमनी ज्योत्स्ना, सर्वव्याधिकरं तमः ।। १२. (क) वैशेषिक, सूत्र ५१२।१६ : द्रव्यगणकर्गनियत्तिवेधादभावस्तमः। राजवल्लभकोष ५२२ : (ख) वैशेषिक सूत्रोपरकार, ५।२।२० : उभृतरूपवद्यावतेजःतमो भयावह तिक्तं, दृष्टितेजोवरोधनम्। संसगांभावस्तमः। वाक्यपदीय, १११११: १३. मीमांशा श्लोकवार्तिक, १८०-१८१ : अणवः सर्वशक्तित्वाद् भेदसंसर्गवृत्तयः । अत्र ब्रूमा यदा तावज्जले सौर्येण तेजसा। छायातपतमःशब्दभावेन परिणामिनः।। स्फुरता चाक्षुषं तेजः प्रतिस्रोतःप्रवर्तितम्।। (क) विधिविवेकन्यायकर्णिका, टीका, पृ० ६९-७६। स्वदेशमेव गृह्णाति सवितारमनेकधा। (ख) मानमेयोदय, पृ० १५२ : भिन्नमूर्तिर्यथापात्रं तदास्यानेकता कुतः।। गुणकर्मादिसद्भावादस्तीति प्रतिभासतः। १४. तत्त्वसंग्रहपजिका, पृ० ४१८, ६६७ : ...अतो नास्त्येव किञ्चिद् प्रतियोग्यस्मृतश्चैव भावरूपं ध्रुवं तमः ।। वस्तु भूत प्रतिविम्बकं नाम। (ग) तत्त्वप्रदीपिका चित्सुखी, ५५२८ : तमाल श्यामल ज्ञाने निर्वाध जागृति स्फुटे। द्रव्यान्तरं तमः कस्मादकस्मादपलप्यते।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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