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________________ उत्तरज्झयणाणि ५६ अध्ययन २ : श्लोक ४०-४१ टि० ७१-७३ ___ अप्पिच्छे-अल्पेच्छ-अल्प इच्छा वाला। जो मुनि शान्त्याचार्य ने भी प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या प्रज्ञा के उत्कर्ष धर्मोपकरण के अतिरिक्त कुछ भी पाने की अभिलाषा नहीं और अपकर्ष----दोनों दृष्टियों से की है। नेमिचन्द्र ने प्रज्ञा के करता, सत्कार-पूजा आदि की वांछा नहीं करता, वह 'अल्पेच्छ' अपकर्ष की दृष्टि से इसकी व्याख्या की है। उन्होंने मूल सूत्र का कहलाता है। शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैं—(१) थोड़ी ही अनुसरण किया है। कथा के प्रसंग में उन्होंने प्रज्ञामद का इच्छा वाला (२) इच्छा रहित-निरीह। उल्लेख भी किया है।" अन्नाएसी-जो अज्ञात रहकर---तप, जाति आदि का ज्ञानावरण कर्म के उपार्जन के पांच हेतु हैं"परिचय दिए बिना आहार की एषणा करता है, उसे 'अज्ञातैषी' १. ज्ञान और ज्ञानवान् की निन्दा करना। कहा जाता है। अपरिचित कुलों से एषणा करने वाला भी २. ज्ञान और ज्ञानवान् पर प्रद्वेष रखना। 'अज्ञातैषी' कहलाता है। मनुस्मृति में भी भोजन के लिए ३. ज्ञान और ज्ञानवान् के प्रति मत्सरभाव रखना। कुल-गोत्र का परिचय देने वाले ब्राह्मण को 'वान्ताशी' कहा है।" ४. ज्ञान और ज्ञानवान् का उपधात करना। ७१. प्रज्ञावान् मुनि....अनुताप न करे (नाणुतप्पेज्ज पण्णव) ५. ज्ञान और ज्ञानवान् के मार्ग में विघ्न उत्पन्न करना। मुनि अन्यतीर्थिकों को राजा, अमात्य आदि विशिष्ट जनों जब ज्ञानावरण कर्म का विपाक होता है तब ज्ञान आवृत से सत्कारित होते देखकर अपने मन में यह अनुताप न करे- हो जाता है। ऐसी स्थिति में जब कोई कुछ पूछता है तब व्यक्ति अरे! मैं भी इनमें प्रव्रजित क्यों न हो गया? मैं श्रमण बना। उसका उत्तर न दे पाने के कारण मन ही मन अपने को हीन श्रमण तो कुछेक लोगों के द्वारा पूजनीय और वन्दनीय हैं। दूसरे मानने लग जाता है। यह प्रज्ञा के अभाव के कारण उत्पन्न तीर्थिक इनको पराभूत भी कर देते हैं। मैंने क्यों श्वेत वस्त्र परीषह है। धारण किए। सूत्रकार ने इस परीषह को समभावपूर्वक सहने के कुछ मुनि कभी भी ऐसा न सोचे। जो ऐसा नहीं सोचता वही सूत्र निर्दिष्ट किए हैंप्रज्ञावान् होता है। १. मैंने स्वयं इस अज्ञान का हेतुभूत ज्ञानावरण कर्म का ७२. (श्लोक ४०) उपार्जन किया है। प्रज्ञा होने पर उसका मद करना प्रज्ञा परीषह है। इसी २. ये कर्म तत्काल ही उदय में नहीं आए। अबाधाकाल प्रकार प्रज्ञा न होने पर हीनता की अनुभूति करना भी प्रज्ञा बीत जाने पर, उपयुक्त निमित्तों का संयोग मिलने पर, परीषह है। पहले में प्रज्ञा के उत्कर्ष का भाव है और दूसरे में इनका विपाक हुआ है। अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर प्रज्ञा के अपकर्ष का भाव है। है कि मैं इनके विघात के लिए प्रयत्न करूं, न कि मूल सूत्र में अप्रज्ञान से उत्पन्न हीनभाव को सहन करने विषादग्रस्त होकर अपने आपको दुःखी बनाऊं। का वर्णन है। प्रज्ञा-मद सूत्र से फलित नहीं है। चूर्णिकार ने ३. सहज ही आज इन कमों का विपाक हो रहा है तो मैं प्रज्ञामद का वर्णन किया है। उसकी तुलना राजवार्तिक के वर्णन इन्हें सहन करूं। से की जा सकती है। राजवार्तिक में केवल प्रज्ञा-मद का ही ७३. पश्चात् उदय में आते हैं (पच्छा उइज्जन्ति) वर्णन मिलता है। वहां प्रज्ञा के अपकर्ष से होने वाले हीनभाव कर्म-बन्ध की प्रक्रिया के अनुसार कर्मों का बन्ध होते ही का वर्णन नहीं है। चूर्णि में उसका उल्लेख भी मिलता है। वे उदय में नहीं आ जाते। प्रत्येक कर्मबन्ध का अबाधाकाल १. सुखबोधा, पत्र ४६ : 'अल्पेच्छः' धर्मोपकरणप्राप्तिमात्राभिलाषी न सत्काराद्याकांक्षी। २. बृहद्वृत्ति, पत्र १२५ । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८१ : 'अज्ञातैषी' न ज्ञापयत्यहमेवंभूतः पूर्वमासीत्, न वा क्षपको बहुश्रुतो वेति। (ख) वही, पृ. २३५ : अज्ञातमज्ञातेन एषते-भिक्षते असौ अज्ञातैषी, निश्रादिरहित इत्यर्थः। (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ : अज्ञातः-तपस्वितादिभिर्गुणैरनवगतः एष्यते-ग्रासादिकं गवेषयत्तीत्येवंशीलः। ४. मनुस्मृति, ३।१०६ : न भोजनार्थ स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत्। भोजनार्थ हि ते शंसन्वान्ताशीत्युच्यते बुधैः ।। सुखबोधा, पत्र ४६ : तीर्थान्तरीयान् नृपत्यादिभिसत्क्रियमाणानवेक्ष्य किमहमेषां मध्ये न प्रव्रजितः? कि मया कतिपयजनपूज्या इतरजनस्यापि परिभवनीयाः श्वेतभिक्षयो गीकृताः? इति न पश्चात्तापं विधत्ते। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८२ : प्रज्ञायते अनयेति प्रज्ञा, प्रगता ज्ञा प्रज्ञा, प्रज्ञापरीसहो नाम सो हि साति प्रज्ञाने तेण गवितो भवति तस्य प्रज्ञापरिषहः। ७. तत्त्वार्थ राजवार्तिक पृ. ६१२ : अंगपूर्वप्रकीर्णकविशारदस्थ कृत्स्न ग्रन्थावधारिणः अनुत्तरवादिनस्त्रिकालविषयार्थविदः शब्दन्यायाध्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिभूतोद्योतखद्योतवित् नितरामवभासन्ते इति विज्ञानमदः......| ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८२। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र १२६, १२७। १०. सुखबोथा पत्र ५०॥ ११. बृहद्वृत्ति, पत्र १२६ : ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव, निन्दाप्रद्वेषमत्सरैः। उपघातैश्च विघ्नैश्च, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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