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________________ चरण-विधि ५४५ अध्ययन ३१ : श्लोक १६ टि० ३५,३६ (२५) विकथानुयोग–अर्थ और काम के उपायों के प्रतिपादक ग्रन्थ । जैसे—कामन्दक, वात्स्यायन, भारत आदि। (२६)विद्यानुयोग-रोहणी आदि विद्या की सिद्धि बताने वाला शास्त्र। (२७) मन्त्रानुयोग-मंत्र-शास्त्र। (२८) योगानुयोग-वशीकरण-शास्त्र, हर-मेखलादि शास्त्र। (२६)अन्यतीर्थिक प्रवृत्तानुयोग-अन्यतीर्थिकों द्वारा प्रवर्तित शास्त्र। देखिए-समवाओ, समवाय २६ । बृहवृत्ति (पत्र ६१७) में ये कुछ भिन्न प्रकार से मिलते (१०) दो महीने और पन्द्रह दिन की आरोपणा (११) दो महीने और बीस दिन की आरोपणा (१२) दो महीने और पच्चीस दिन की आरोपणा (१३) तीन महीने की आरोपणा (१४) तीन महीने और पांच दिन की आरोपणा (१५) तीन महीने और दस दिन की आरोपणा (१६) तीन महीने और पन्द्रह दिन की आरोपणा (१७) तीन महीने और बीस दिन की आरोपणा (१८) तीन महीने और पच्चीस दिन की आरोपणा (१६) चार महीने की आरोपणा (२०) चार महीने और पांच दिन की आरोपणा (२१) चार महीने और दस दिन की आरोपणा (२२) चार महीने और पन्द्रह दिन की आरोपणा (२३) चार महीने और बीस दिन की आरोपणा (२४) चार महीने और पच्चीस दिन की आरोपणा (२५) उपघातिकी आरोपणा। (२६)अनुपघातिकी आरोपणा। (२७) कृत्स्ना आरोपणा। (२८) अकृत्स्ना आरोपणा।' ३५. उनतीस पाप-श्रुत प्रसंगों...में (पावसुयपसंगेसु) पाप के उपादानकारणभूत जो शास्त्र हैं, उन्हें 'पापश्रुत' कहते हैं। उन शास्त्रों का प्रसंग अर्थात् अभ्यास-पापश्रुत प्रसंग है। वे २६ हैं(१) भौम-भूकम्प आदि के फल को बताने वाला निमित्त-शास्त्र। उत्पात-स्वाभाविक उत्पातों का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र। स्वप्न-स्वप्न के शुभाशुभ फल को बताने वाला निमित्त-शास्त्र। (४) अंतरिक्ष-आकाश में उत्पन्न होने वाले नक्षत्रों के युद्ध का फला फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र। अंग-अंग-स्फुरण का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र। स्वर-स्वर के शुभाशुभ फल का निरूपण करने वाला निमित्त-शास्त्र। व्यञ्जन-तिल, मसा आदि के फल को बताने वाला निमित्त-शास्त्र। (८) लक्षण–अनेक प्रकार के लक्षणों का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र। इन आठों के तीन-तीन प्रकार होते हैं—(१) सूत्र, (२) वृत्ति और (३) वार्त्तिका। इस तरह २४ पापश्रुत प्रसंग हुए। अवशेष निम्न प्रकार हैं (६) (३) ३६. तीस मोह के स्थानों में (मोहट्ठाणेसु) मोहकर्म के परमाणु व्यक्ति को मूढ़ बनाते हैं। उनका संग्रह व्यक्ति अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करता है। यहां महामोह उत्पन्न करने वाली तीस प्रवृत्तियों का उल्लेख है। वह इस प्रकार है: (१) त्रस-प्राणी को पानी में डुबो कर मारना। (२) सिर पर चर्म आदि बांध कर मारना। (३) हाथ से मुख बन्द कर सिसकते हुए प्राणी को मारना। मण्डप आदि में मनुष्यों को घेर, वहां अग्नि जला, धुंए की घुटन से उन्हें मारना। संक्लिष्ट चित्त से सिर पर प्रहार करना, उसे फोड़ डालना। विश्वासघात कर मारना। अनाचार को छिपाना, माया को माया से पराजित करना, की हुई प्रतिज्ञाओं को अस्वीकार करना। अपने द्वारा कृत हत्या आदि महादोष का दूसरे पर आरोप लगाना। (E) यथार्थ को जानते हुए भी सभा के समक्ष मिश्र-भाषा बोलना-सत्यांश की ओट में बड़े झूठ को छिपाने का यत्न करना और कलह करते ही रहना। (१०) अपने अधिकारी की स्त्रियों या अर्थ-व्यवस्था को अपने अधीन बना उसे अधिकार और भोग-सामग्री से वंचित कर डालना, रूखे शब्दों में उसकी भर्त्सना करना। (११) बाल-ब्रह्मचारी न होने पर भी अपने आपको बाल-ब्रह्मचारी कहना। (१२) अब्रह्मचारी होते हुए भी अपने आपको ब्रह्मचारी कहना। (१३) जिसके सहारे जीविका चलाए, उसी के धन को हड़पना। (६) १. समवाओ, समवाय २८। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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