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________________ उत्तरज्झयणाणि ६८९ परिशिष्ट ४ : व्यक्ति परिचय __ हमारी मान्यता के अनुसार यह कोई दूसरा होना चाहिए। श्रेणी का अधिपति था, इसलिए उसका नाम 'श्रेणिक' पड़ा। जब क्या यह विपाक सूत्र (श्रुत १ अ०३) में वर्णित पुरिमताल नगर का श्रेणिक बालक था तब एक बार राजमहल में आग लग गई। श्रेणिक राजा तो नहीं है? किन्तु वहां उसके दीक्षित होने का उल्लेख नहीं भयभीत होकर भागा। उस स्थिति में भी वह 'भंभा' को आग की लपटों से निकालना नहीं भूला, इसलिए उसका नाम 'भंभासार' संभव है कि यह विपाक सूत्र (श्रुत २, अ० ७) में वर्णित पड़ा। महापुर नगर का राजा बल का पुत्र महाबल हो। बौद्ध-परम्परा में इसके दो नाम प्रचलित हैं-(१) श्रेणिक बलभद्र, मृगा और बलश्री (अध्ययन १८)-बलभद्र सुग्रीवनगर (?) और (२) बिम्बिसार । श्रेणिक नामकरण के पूर्वोक्त कारण मान्य का राजा था। उसकी पटरानी का नाम 'मृगा' और पुत्र का नाम रहा है। इसके अतिरिक्त दो कारण और बताए हैं-(१) या तो 'बलश्री' था। रानी मृगा का पुत्र होने के कारण जनता में वह उसकी सेना महती थी इसलिए उसका नाम 'सेनिय' (श्रेणिक) पड़ा 'मृगापूत्र' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। देखिए.-उत्तरज्झयणाणि, पृ०३०४ या (२) उसका गोत्र 'सेनिय' था, इसलिए वह 'श्रेणिक' कहलाया।२ श्रेणिक (२०१२) यह मगध साम्राज्य का अधिपति था। जैन, बौद्ध इसका नाम बिम्बिसार इसलिए पड़ा कि इसके शरीर का सोने और वैदिक-तीनों परम्पराओं में इसकी चर्चा मिलती है। पौराणिक जैसा रंग था। दूसरी बात यह है कि तिब्बत के ग्रन्थों में इसकी ग्रन्थों में इसको शिशुनागवंशीय, बौद्ध-ग्रन्थों में हर्यक कुल में माता का नाम 'बिम्बि' उल्लिखित मिलता है। अतः इसे बिम्बिसार उत्पन्न और जैन-ग्रन्थों में वाहीक कुल में उत्पन्न माना गया है। कहा जाने लगा। रायचौधरी का अभिमत है कि 'बौद्ध-साहित्य में जो हर्यक कुल पुराणों में इसे अजातशत्रु", विधिसार कहा गया है। अन्यत्र का उल्लेख है वह नागवंश का ही द्योतक है। कोवेल ने हर्यक का इसे 'विंध्यसेन' और 'सुबिन्दु' भी कहा गया है। अर्थ 'सिंह' किया, परन्तु इसका अर्थ 'नाग' भी होता है। प्रोफेसर श्रेणिक के पिता का नाम 'प्रसेनजित और माता का नाम भण्डारकर ने नागदशक में बिम्बिसार को गिनाया है और इन सभी धारिणी' था। श्रेणिक के २५ रानियों का नाम आगम-ग्रन्थ में राजाओं का वंश 'नाग' माना है।" उपलब्ध होते हैं। वे इस प्रकार हैंबौद्ध ग्रन्थ महावंश के इस कुल के लिए शिशुनाग वंश' (१) नन्दा (१४) काली लिखा है। जैन ग्रन्थों में उल्लिखित 'वाहीक कूल' भी नागवंश की (२) नन्दवती (१६) सुकाली ओर संकेत करता है, क्योंकि वाहीक जनपद नाग जाति का मुख्य (३) नन्दुत्तरा (१६) महाकाली केन्द्र था। तक्षशिला उसका प्रधान कार्य-क्षेत्र था और यह नगर (४) नन्दिश्रेणिक (१७) कृष्णा वाहीक जनपद के अन्तर्गत था। अतः श्रेणिक को शिशुनागवंशीय (५) मरुय (१८) सुकृष्णा मानना अनुचित नहीं है। (६) सुमरुय (१६) महाकृष्णा विम्बिसार शिशुनाग की परम्परा का राजा था-इस मान्यता (७) महामरुय (२०) वीरकृष्णा से कुछ विद्वान् सहमत नहीं हैं। विद्वान् गैगर और भण्डारकर ने (८) मरुदेवा (२१) रामकृष्णा सिलोन के पाली वंशानुक्रम के आधार पर बिम्बसार और शिशुनाग (E) भद्रा (२२) पितृसेनकृष्णा की वंश-परम्परा का पृथक्त्व स्थापित किया है। उन्होंने शिशुनाग को (१०) सुभद्रा (२३) महासेनकृष्णा बिम्बिसार का पूर्वज न कानकर उसे उत्तरवर्ती माना है। (११) सुजाता (२४) चेल्लणा विभिन्न परम्पराओं में श्रेणिक के विभिन्न नाम मिलते हैं। (१२) सुमना (२५) अपतगंधा जैन-परम्परा में उसके दो नाम हैं-(१) श्रेणिक और (२) भंभासार।' (१३) भूतदिन्ना नाम की सार्थकता पर ऊहापोह करते हुए लिखा गया है कि वह बौद्ध-ग्रन्थों के अनुसार श्रेणिक के पांच सौ रानियां थीं। १. भागवत महापुराण, द्वितीय खण्ड, पृ० १०३। १५. भागवत, द्वितीय खण्ड, पृ० ६०३ २. अश्वघोष बुद्धचरित्र, सर्ग ११ श्लोक २: जातस्य हर्यकके विशाले..। १६. वही, १२।१। ३. आवश्यक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ६७७। १७. भगवदत्त : भारतवर्ष का इतिहास पृ०२५२। ४. स्टडीज इन इण्डियन एन्टिक्वीटीज, पृ० २१६ । १६. आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति, पत्र ६७१। ५. महाबंश, परिच्छो, गाथा २७-३२। हरिषेणाचार्य ने बृहत्कल्प कोष (पृ०७८) में श्रेणिक के पिता का नाम ६. स्टडीज इन इण्डियन एन्टिक्वीटीज, पृ० २१५-२१६ । 'उपश्रेणिक' और माता का नाम 'प्रभा' दिया है। ७. अभिधान चिन्तामणि ३१३७६ । उत्तरपुराण (७४।४,८ पृ० ४७१) में पिता का नाम 'कूणिक' और ८. अभिधान चिन्तामणि, स्वोपज्ञ टीका, पत्र २८५। माता का नाम 'श्रीमती' दिया है। यह अत्यन्त प्रामक है। ६. (क) त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १०।६।१०६-११२। अन्यत्र पिता का नाम महापा, हेमजित, क्षेत्रोजा, क्षेत्प्रोजा भी मिलते (ख) स्थानांग वृत्ति, पत्र ४६१। है। (देखिए-पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्शिएण्ट इण्डिया, पृ० २०५)। १०. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटर्ली, भाग १४, अंक २, जून १६३८, १६. अणुत्तरोबवाइयदशा, प्रथम वर्ग। पृ०४१५। २०. अन्तकृद्दशा, सातवां वर्ग। ११. वही, पृ०४१५॥ २१. आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १६४। १२. धम्मपाल-उदान टीका, पृ० १०४। २२. निशीथ चर्णि, सभाष्य, भाग १, पृ० १७। १३. पाली इंग्लिश डिक्शनरी, पृ० ११०। २३. महावग्ग, ८1१1१५॥ १४. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटर्ली, भाग १४, अंक २, जून १६३८, पृ०४१३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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