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________________ आमुख यह अध्ययन राजा संजय के वर्णन से समुत्पन्न है, विशेष दृढ़ करने के लिए महापुरुषों के उदाहरण दिए तथा इसलिए इसका नाम 'संजइज्जं'-'संजयीय' है।' संयमपूर्ण जीवन बिताने का उपदेश दिया। संयमी कैसा होता कांपिल्य नगर में संजय नाम का एक राजा राज्य करता है? उसे क्या करना होता है ? तप का आचरण क्यों करना था। एक बार वह शिकार के लिए निकला। उसके साथ चारों चाहिए ? सुदुश्चर धर्म का आचरण कैसे किया जा सकता प्रकार की सेनाएं थीं। वह केसर उद्यान में गया। वहां उसने है आदि प्रश्नों का समाधान दिया। संत्रस्त मृगों को मारा। इधर-उधर देखते उसकी दृष्टि गर्दभाली जब संजय राजर्षि ने अपना आयुष्य-काल जानने की मुनि पर जा टिकी। वे ध्यानस्थ थे। उन्हें देख वह संभ्रान्त हो जिज्ञासा रखी तब क्षत्रिय मुनि ने कहा-राजर्षि ! जैन प्रवचन गया। उसने सोचा-मैंने यहां के मृगों को मार मुनि की में त्रिकालज्ञ तीर्थंकर की आराधना करने वाला मुनि साधना के आशातना की है। वह घोड़े से नीचे उतरा। मुनि के पास जा द्वारा स्वयं त्रिकालज्ञ हो जाता है। मैं तुम्हारे आयुष्य-काल को वन्दना कर बोला—“भगवन्! मुझे क्षमा करें।” मुनि ध्यानलीन जानता हूं और तुमने विशुद्ध प्रज्ञा से प्रश्न पूछा है, इसलिए थे। वे कुछ नहीं बोले । राजा का भय बढ़ा। उसने सोचा–यदि वह तुमको बता देता हूं। मुनि क्रुद्ध हो गए तो वे अपने तेज से समूचे विश्व को नष्ट अध्ययन बहुत सूत्रात्मक शैली में लिखा गया है, इसलिए कर देंगे। उसने पुनः कहा—“भंते ! मैं राजा संजय हूं। मौन इसमें उक्त घटना का संकेत मिलता है। उसका पूरा विवरण तोड़ कर मुझे कुछ कहें।” (श्लोक १-१०) उपलब्ध नहीं है। वृत्तिकार ने संकेत की भाषा को स्पष्ट करने मुनि ध्यान संपन्न कर राजा को अभयदान देते हुए का किञ्चित् प्रयत्न किया है। (श्लोक ३०,३१,३२) बोले-“राजन् ! तुझे अभय है। तू भी अभयदाता बन। इस क्षत्रिय मुनि ने राजर्षि संजय से दार्शनिक चर्चा भी की। अनित्य जीव-लोक में तू क्यों हिंसा में आसक्त हो रहा है" भगवान् महावीर के समय में दर्शन की चार मुख्य धाराएं (श्लोक ११)। मुनि ने जीवन की अस्थिरता, ज्ञाति-सम्बन्धों की थीं-क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद। असारता, कर्म-परिणामों की निश्चितता का उपदेश दिया। उन्होंने इन चारों की जानकारी दी और निष्कर्ष की राजा ने सुना। वैराग्य उभर आया। वह राज्य को त्याग कर भाषा में क्रियावाद के प्रति रुचि के संवर्धन की प्रेरणा दी। मुनि गर्दभाली के पास श्रमण बन गया। प्रसंगवश उन्होंने अपने अनुभवों का उल्लेख कर पुनर्जन्म और एक दिन वह क्षत्रीय मुनि संजय मुनि के पास आया आत्मा की स्थापना की। (श्लोक ३३) और बोला--"तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारा गोत्र क्या है? इस अध्ययन से एक नवदीक्षित मुनि के स्थिरीकरण की किसलिए तुम माहन-मुनि बने हो? तुम किस प्रकार आचार्यों प्रक्रिया सहज ही फलित होती है। की सेवा करते हो और किस प्रकार विनीत कहलाते हो?" इस अध्ययन में भरत, सगर, मघव, सनत्कुमार, शांति, (श्लोक २१) अर, कुन्थु, महापद्म, हरिषेण, जय आदि दस चक्रवर्तियों और मुनि संजय ने उत्तर दिया-"नाम से मैं संजय हूं। गोत्र दशार्णभद्र, करकण्डु, द्विमुख, नमि, नग्गति, उद्रायण, काशीराज, मेरा गौतम है। गर्दभाली मेरे आचार्य हैं। मुक्ति के लिए मैं विजय, महाबल आदि नौ नरेश्वरों का वर्णन है। माहन बना हूं। आचार्य के उपदेशानुसार मैं सेवा करता हूं इसमें दशार्ण, कलिंग, पांचाल, विदेह, गान्धार, सौवीर, इसलिए मैं विनीत हूं।" (श्लोक २२) काशी आदि देशों का नामोल्लेख भी हुआ है। यह अध्ययन क्षत्रिय मुनि ने उनके उत्तर से आकृष्ट हो बिना पूछे ही प्राग ऐतिहासिक और ऐतिहासिक जैन शासन की परम्परा का कई तथ्य प्रकट किए और मुनि संजय को जैन प्रवचन में संकलन-सूत्र जैसा है। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३६४ : संजयनाम गोयं, वेयंतो भावसंजओ होइ। तत्तो समुट्ठियमिणं, अज्झयणं संजइज्जति ।। dain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Priva www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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