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________________ उत्तरज्झयणाणि १६४ अध्ययन ६ : श्लोक १५-२६ प्राकारं कारयित्वा गोपुराट्टालकानि च। अवचूलक-शतघ्नीः ततो गच्छ क्षत्रिय !" एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। हे क्षत्रिय ! अभी तुम परकोटा२२, बुर्ज वाले नगर-द्वार, खाई और शतघ्नी (एक बार में सौ व्यक्तियों का संहार करने वाला यंत्र) बनवाओ, फिर मुनि बन जाना। यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा या सहिष्णुता को त्रिगुप्त बुर्ज, खाई और शतघ्नी स्थानीय मन, वचन और काय-गुप्ति से सुरक्षित, दुर्जेय और सुरक्षा-निपुण परकोटा बना, पराक्रम को धनुष, ईर्यापथ२७ को उसकी डोर और धृति को उसकी मूठ बना उसे सत्य से बांथे। १५.पागारं कारइत्ताणं गोपुरट्टालगाणि च। उस्सूलगसयग्घीओ तओ गच्छसि खत्तिया!।। १६.एयमलै निसामित्ता हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी।। २०.सद्धं नगरं किच्चा तवसंवरमग्गलं। खंतिं निउणपागारं तिगुत्तं दुप्पधंसयं ।। २१.धणुं परक्कम किच्चा जीवं च इरियं सया। धिई च केयणं किच्चा सच्चेण पलिमंथए।। २२.तवनारायजुत्तेण भेत्तूणं कम्मकंचुयं। मुणी विगयसंगामो भवाओ परिमुच्चए।। २३.एयमझें निसामित्ता हेऊकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं देविंदो इणमब्बवी।। २४.पासाए कारइत्ताणं वद्धमाणगिहाणि य। बालग्गपोइयाओ य तओ गच्छसि खत्तिया!।। २५.एयमट्ठ निसामित्ता हेऊकारणचोइयो। तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी।। २६.संसयं खलु सो कुणई जो मग्गे कुणई घरं। जत्थेव गंतुमिच्छेज्जा तत्थ कुब्वेज्ज सासयं ।। तप-रूपी लोह-वाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म-रूपी कवच को भेद डाले। इस प्रकार संग्राम का अन्त कर मुनि संसार से मुक्त हो जाता है। इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा श्रद्धां नगरं कृत्वा तपःसंवरमर्गलाम्। क्षान्ति निपुणप्राकारं त्रिगुप्तं दुष्प्रधर्षकम् ।। धनुः पराक्रमं कृत्वा जीवां चेयाँ सदा। धृतिं च केतनं कृत्वा सत्येन परिमथ्नीयात् ।। तपोनाराचयुक्तेन भित्वा कर्मकंचुकम्। मुनिर्विगतसङ्ग्रामः भवात् परिमुच्यते।। एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमि राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। प्रासादान् कारयित्वा वर्धमानगृहाणि च। 'वालग्गपोइयाओ' च ततो गच्छ क्षत्रिय !" एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। संशयं खलु स कुरुते यो मार्गे कुरुते गृहम्। यत्रैव गन्तुमिच्छेत् तत्र कुर्वीत शाश्वतम्।। और हे क्षत्रिय ! अभी तुम प्रासाद, वर्धमान-गृह चन्द्रशाला बनवाओ, फिर मुनि बन जाना। यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा वह संदिग्ध ही बना रहता है जो मार्ग में घर बनाता है। (न जाने कब उसे छोड़ कर जाना पड़े)। अपना घर वहीं बनाना चाहिए जहां जाने की इच्छा हो--- जहां जाने पर फिर कहीं जाना न हो।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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