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________________ महानिर्ग्रन्थीय ३३९ देने के लिए प्रदक्षिणा का उल्लेख बाद में किया गया है।' किन्तु यह समाधान हृदय का स्पर्श नहीं करता। क्या इस श्लोक से यह सूचना नहीं मिलती कि वन्दना के बाद प्रदक्षिणा दी जाती थी ? ६. नाथ (नाही) अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति को 'योग' और प्राप्य वस्तु के संरक्षण को 'क्षेम' कहा जाता है। जो योगक्षेम करने वाला होता है, वह 'नाथ' कहलाता है। अनाथी मुनि ने श्रेणिक से कहा -- “ गृहस्थ - जीवन में मेरा कोई नाथ नहीं था। मैं मुनि बा और नाथ हो गया—अपना, दूसरों का और सब जीवों का र बौद्ध साहित्य में १० नाथ-करण धर्मों का निरूपण इस प्रकार मिलता है कौन दस धर्म बहुत उपकारक हैं ? दस नाथ-करण धर्म (१) आसो भिक्षु शीलवान् प्रातिमोक्ष (भिक्षुनियम ) - संवर (कवच ) से संवृत (आच्छादित) होता है थोड़ी सी बुराइयों (वय) में भी भय-दर्शी, आचार-गोचर-युक्त हो विहरता है, ( शिक्षापदों को ) ग्रहण कर शिक्षापदों को सीखाता है। जो यह आसो ! भिक्षु शीलवान्०, यह भी धर्म नाथ-करण (न अनाथ करने वाला) है। 1 (२) भिक्षु बहुश्रुत श्रुतघर तसंच होता है जो वह धर्म आदि - कल्याण, मध्य-कल्याण, पर्यवसान कल्याण, सार्थक = सव्यंजन हैं, (जिसे) केवल, परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य कहते हैं, वैसे धर्म, (भिक्षु) के बहुत सुने, ग्रहण किए, वाणी से परिचित, मन से अनुपेक्षित, दृष्टि से सुप्रतिविद्ध ( = अन्तस्तल तक देखे) होते हैं; यह भी धर्म नाथ-करण होता है। (३) भिक्षु कल्याण-मित्र = कल्याण-सहाय = कल्याण-संप्रवर्तक होता है। जो यह भिक्षु कल्याण मित्र होता है, यह भी० । (४) भिक्षु सुवच, सौवचस्य (= मधुरभाषित) वाले धर्मों से युक्त होता है। अनुशासनी (= धर्म-उपदेश ) में प्रदक्षिणाग्राही = समर्थ ( = क्षम) (होता है), यह भी० । (५) भिक्षु सुब्रह्मचारियों के जो नाना प्रकार के कर्तव्य होते हैं, उनमें दक्ष - आलस्य रहित होता है, उनमें उपाय = विमर्श से युक्त, करने में समर्थ = विधान में समर्थ होता है, भी० । यह (६) भिक्षु अभिधर्म (सूत्र में), अनि-विनय (भिक्षु-नियमों में), धर्म-काम (= धर्मेच्छु), प्रिय-समुदाहार ( = दूसरे के उपदेश को सत्कार पूर्वक सुनने वाला, स्वयं उपदेश करने में उत्साही), बड़ा प्रमुदित होता है, यह भी० । (७) भिक्षु जैसे तैसे चीवर, पिंडपात, शयनासन, - १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७३ : पादवन्दनान्तरं प्रदक्षिणाऽभिधानं पूज्यानामालोक एव प्रणामः क्रियत इति ख्यापनार्थम् । २. वही, पत्र ४७३ 'नाथ' योगक्षेमविधाता । ३. उत्तरज्झयणाणि २० । ३५ : ततो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य । Jain Education International अध्ययन २० : श्लोक ६-१४ टि० ६-६ ग्लान- प्रत्यय - भैषज्य परिष्कार से सन्तुष्ट होता है० । (८) भिक्षु अकुशल धर्मों के विनाश के लिए, कुशल थर्मो की प्राप्ति के लिए उद्योगी (= आरब्ध-वीर्य), स्थामवान् दृढ़पराक्रम होता है कुशल धर्मों में अनिक्षिप्त-पुर (भगोड़ा नहीं होता। (६) भिक्षु स्मृविमान अत्युत्तम स्मृति-परिपाक से युक्त होता है; बहुत पुराने किए, बहुत पुराने भाषण किए का भी स्मरण करने वाला, अनुस्मरण करने वाला होता है० । (१०) भिक्षु प्रज्ञावान् उदय-अस्त-गामीनी, आर्य निर्बंधिक ( = अन्तस्तल तक पहुंचने वाली), सम्यक् दुःखक्षय-गामिनी प्रज्ञा से युक्त होता है० ॥ * ७. (कहं नाहो न विज्जई) श्रेणिक ने मुनि अनाथी से कहा- -आपका वर्ण और आकार विस्मयकारी है। इस संपदा से युक्त होने पर भी आपके कोई नाथ नहीं है, यह कैसे ? क्योंकि यह लौकिक प्रवाद है 'यत्राकृतिस्तत्र गुणाः वसन्ति - जहां आकृति है वहां गुणों का निवास है। आप प्रशस्त आकृति के धारक हैं, इसलिए आप गुणों के आकर है और भी कहा है— 'गुणवति धनं ततः श्रीः श्रीमत्याज्ञा ततो राज्यमिति' - गुणवान् के प्रति धन आता है। उससे उसकी श्री शोभा बढ़ती है। उसमें आदेश देने की क्षमता बढ़ती है और अन्ततोगत्वा वह राजा होता है ।" ८. आज्ञा और ऐश्वर्य (आगाइस्सरियं) आज्ञा का अर्थ है-अस्खलित अनुशासन। वैसी आज्ञा जिसका कोई उल्लंघन करने का साहस न कर सके। ऐश्वर्य का अर्थ है-अपार संपदा, अमित समृद्धि । इसका दूसरा अर्थ है - प्रभुत्व । ९. (श्लोक १४) मनुष्य के पास तीन शक्तियां होती हैं—संपदा की शक्ति, ऐश्वर्य सत्ता की शक्ति और अध्यात्म की शक्ति | जिनके पास इन तीनों में से एक भी शक्ति होती है वह इष्टसिद्धि करने में सफल हो जाता है। इसलिए सम्राट् श्रेणिक ने अपने ऐश्वर्य की ओर मुनि का ध्यान आकर्षित किया । ऐश्वर्य के निदर्शन के रूप में एक कथा प्रचलित है एक बार राजा और मंत्री में विवाद हो गया कि बड़ा कौन ? अन्त में तय हुआ कि जो अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सके वही बड़ा होगा। कुछ दिन बीते राज्य सभा जुड़ी हुई थी। सभी सभासद् अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए थे । अवसर देखकर मंत्री ने अपने एक परम मित्र सभासद् को राजा के चाटें लगाने का निर्देश दिया। यह सुनते ही वह व्यक्ति सकपकाया और घबराया। मंत्री के द्वारा आश्वत होने पर भी सव्वेसिं चेव भूयाणं तसाण थावराण य ।। ४. दीघनिकाय ३।११, पृ० ३१२-३१३ । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७३ । ६. वही, पत्र ४७४ : आज्ञा अस्खलितशासनात्मिका, ऐश्वर्यं च द्रव्यादिसमृद्धिः, यद्वा आज्ञया ऐश्वर्य - प्रभुत्वं आज्ञैश्वर्यम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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