SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 400
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रथनेमीय ३५९ अध्ययन २२ : श्लोक १६-२८ १६.जइ मज्झ कारणा एए यदि मम कारणादेते “यदि मेरे निमित्त से इन बहुत से जीवों का वध हम्मिहिंति बहू जिया। हनिष्यन्ते बहवो जीवाः। होने वाला है तो यह परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर न मे एयं तु निस्सेसं न मे एतत्तु निःश्रेयसं नहीं होगा।" परलोगे भविस्सई।। परलोके भविष्यति।। २०.सो कुंडलाण जुयलं स कुण्डलयोर्युगलं उस महायशस्वी अरिष्टनेमि ने दो कुंडल, करधनी सुत्तगं च महायसो। सूत्रकं च महायशाः। और सारे आभूषण उतार कर सारथि को दे दिए।२३ आभरणाणि य सव्वाणि आभरणानि च सर्वाणि सारहिस्स पणामए।। सारथये अर्पयति।। २१.मणपरिणामे य कए मनःपरिणामश्च कृतः अरिष्टनेमि के मन में जैसे ही निष्क्रमण (दीक्षा) की देवा य जहोइयं समोइण्णा। देवाश्य यथाचितं समवतीर्णाः।। भावना हुई, वैसे ही उसका निष्कमण-महोत्सव करने सव्वड्डीए सपरिसा सर्वा सपरिषदः के लिए औचित्य के अनुसार देवता आए। उनका निक्खमणं तस्स काउं जे।। निष्कमणं तस्य कर्तुं 'जे'।। समस्त वैभव और उनकी परिषदें उनके साथ थीं। २२.देवमणुस्सपरिवुडो देवमनुष्यपरिवृतः देव और मनुष्यों से परिवृत भगवान् अरिष्टनेमि सीयारयणं तओ समारूढो। शिविकारत्नं ततः समारूढः। शिविका-रत्न में आरूढ़ हुआ। द्वारका से चल निक्खमिय बारगाओ निष्क्रम्य द्वारकातः कर वह रैवतक (गिरनार) पर्वत पर स्थित हुआ। रेवययंमि ट्ठिओ भगवं ।। रैवतके स्थितो भगवान् ।। २३.उज्जाणं संपत्तो उद्यानं सम्प्रातः अरिष्टनेमि सहसाम्रवन उद्यान में पहुंच कर उत्तम ओइण्णो उत्तिमाओ सीयाओ। अवतीर्णः उत्तमायाः शिविकातः। शिविका से नीचे उतरा। उसने एक हजार मनुष्यों साहस्सीए परिवुडो साहनया परिवृतः के साथ चित्रा नक्षत्र में निष्क्रमण किया। अह निक्खमई उ चित्ताहिं ।। अथ निष्कामति तु चित्रायाम् ।। २४.अह से सुगंधगंधिए अथ स सुगन्धिगन्धिकान् समाहित अरष्टिनेमि ने सुगन्ध से सुवासित सुकुमार तुरियं मउयकंचिए। त्वरितं मृदुककुचितान्। और धुंघराले बालों का पंचमुष्टि से अपने आप सयमेव लंचई केसे स्वयमेव लुंचति केशान् तुरन्त लोच किया। पंचमुट्ठीहिं समाहिओ।। पंचमुष्टिभिः समाहितः।। २५.वासुदेवो च णं भणइ वासुदेवश्चेमं भणति वासुदेव ने लुंचितकेश और जितेन्द्रिय अरिष्टनेमि से लुत्तकेसं जिइंदियं। लुप्तकेशं जितेन्द्रियम्। कहा----दमीश्वर! तुम अपने इच्छित-मनोरथ को इच्छियमणोरहे तुरियं । ईप्सितमनोरथं त्वरितं शीघ्र प्राप्त करो। पावेसू तं दमीसरा !।। प्राप्नुहि त्वं दमीश्वर!" २६.नाणेणं दंसणेणं च ज्ञानेन दर्शनेन च तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, शान्ति और मुक्ति से चरित्तेण तहेव य। चारित्रेण तथैव च। बढ़ो। खंतीए मुत्तीए 'क्षान्त्या मुक्त्या वड्डमाणो भवाहि य।। वर्धमानो भव च।। २७.एवं ते रामकेसवा एवं तौ रामकेशवौ इस प्रकार राम, केशव, दसार तथा दूसरे बहुत से दसारा य बहू जणा। दशाराश्च बहवो जनाः। लोग अरिष्टनेमि को वन्दना कर द्वारकापुरी में लौट अरिट्ठणेमिं वंदित्ता अरिष्टनेमि वन्दित्वा आए। अइगया बारगापुरि।। अतिगता द्वारकापुरीम्।। २८.सोऊण रायकन्ना श्रुत्वा राजकन्या अरिष्टनेमि ने प्रव्रज्या की बात को सुन कर राजकन्या पव्वज्जं सा जिणस्स उ। प्रव्रज्यां सा जिनस्य तु। राजीमती अपनी हंसी-खुशी और आनन्द को खो नीहासा य निराणंदा निर्हासा च निरानन्दा बैठी। वह शोक से स्तब्ध हो गई। सोगेण उ समुत्थया।। शोकेन तु समवस्तृता।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy